________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
४०६ ]
[ श्राचाराङ्ग-सूत्रम्
संयम में विचरण करते हैं । सम्ममेयंति = यह भले प्रकार से । पासह देख । त्ति बेमि= ऐसा मैं कहता हूँ ।
भावार्थ - अहो साधको ! जैसे किसी समतल भूभाग पर निमल जल से भरा हुआ, जलचर प्राणियों की रक्षा करता हुआ, अथवा जलचरों द्वारा सुरक्षित स्वच्छ सरोवर होता है उसी तरह आचायदि महर्षि साधक ज्ञान रूपी जल से भरे हुए, निर्दोष क्षेत्रों में रह कर, कषायादि को उपशांत करके, जीवों की रक्षा करते हुए, ज्ञान रूपी प्रवाह को बहाते हुए, इन्द्रियादि के गोपन से सुरक्षित होते हैं यह तुम देखो । यही नहीं कितनेक मुनि भी विवेकवन्त, श्रद्धालु और आरम्भ से निवृत्त होकर, समाधि मरण की अभिलाषा रखते हुए सतत पुरुषार्थ करते हैं, वे भी जलाशय के समान होते हैं ।
।
विवेचन - इस सूत्र में जलाशय से आचार्य की संतुलना की गई है। जलाशय के कतिपय गुणों के साथ आचार्य के गुणों की समानता दिखाई गई है। सूत्र में आया हुआ " अपि " शब्द विभिन्न भंग को सूचित करता है। सरोवर के भी विभिन्न भंग (प्रकार) हैं - एक सरोवर ऐसा होता है जिसमें से पानी निकलता रहता है और दूसरी ओर से पानी आता भी रहता है। जैसे- सीता, सीतोदा नदी के प्रवाह के जलकुण्ड । एक सरोवर ऐसा होता है जिसमें पानी निकलता है परन्तु पानी आता नहीं है जैसेपद्महृद | एक सरोवर ऐसा होता है जिसमें पानी आता ही है निकलता नहीं है जैसे लवणोदधि । एक ऐसा होता है जिसमें न पानी आता है और न पानी निकलता है ऐसे जलाशय मनुष्य लोक से बाहर आचार्य श्रुत की अपेक्षा प्रथम भंग में हैं। जैसे -सीता, सीतोदा नदी के जलकुण्ड में जल आता भी है और निकलता भी है उसी तरह आचार्य श्रुत का ग्रहण भी करते हैं और श्रुत का दान भी करते हैं। वे 'श्रुतसागर में से नवीन-नवीन रत्न प्रहण करते हैं और दूसरे शिष्यों और श्रोताओं को श्रुत का उपदेश प्रदान कर श्रुत का प्रवेश और निर्गम दोनों हैं। साम्परायिक कर्म की अपेक्षा आचार्य द्वितीय भंग में हैं । द्वितीयभंग में निर्गम है। लेकिन प्रवेश नहीं है। आचार्य के कषायादि कर्म निकलते हैं— क्षीण होते हैं लेकिन कषायोदय के प्रभाव से नवीन कर्म का प्रवेश नही हैं। आलोचना की अपेक्षा से प्राचार्य तृतीय भंग में हैं। तृतीयभंग में प्रवेश है लेकिन निर्गम नहीं है। आचार्य आलोचना श्रवण करते हैं लेकिन अन्य के सामने प्रकट नहीं करते । श्राचार्य इतने गम्भीर होते हैं कि वे किसी की आलोचना सुनकर उसको किसी अन्य के सामने प्रकट नहीं करते । कुमार्ग की अपेक्षा चतुर्थ भंग में प्रवेश और निर्गम दोनों नहीं है ।
चार्य कुमार्ग में प्रवेश नहीं करते । प्रवेश ही नहीं तो निर्गम कैसे हो सकता है अतएव इस अपेक्षा से चतुर्थ भंग में है। इन चार भंगों में से यहाँ प्रथम भंग अपेक्षित हैं । स्थविरकल्पी एवं श्रुत के आदाता व उपदेष्टा आचार्य के लिए यह हृद का दृष्टान्त है ।
जिस प्रकार सरोवर निर्मल जल से भरा होता है, उसमें सभी ऋतुओं में उत्पन्न होने वाले कमल सुशोभित होते हैं, उसी तरह श्राचार्य ज्ञानरूपी जल से भरे होते हैं । यहाँ पूरे भरे हुए होते हैं यह कहकर उनकी गम्भीरता का कथन किया है जो पूर्ण होता है वह गम्भीर होता है वह, छलकता नहीं है। आचार्य भी ज्ञान से भरपूर है अतएव पूर्ण अनुभवी हैं जिससे वे बाहर छलकते नहीं हैं। जिस प्रकार सरोवर में कमल शोभा देते हैं उसी तरह आचार्य में पांच प्रकार का आचार, आठ प्रकार की सम्पदा और छत्तीस
+ आयार सुत्र सरीरे वयणे वायण मई पोगमई । एए सुसंपया खलु अट्टमिश्रा संगह परिना ।
For Private And Personal