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[ आचाराङ्ग-सूत्रम्
ऊपर जो बात आचार्य के लिए कही गई है वही बात अन्य महर्षि साधकों के लिए भी लागू हो सकती है। श्राचार्य के अतिरिक्त अन्य भी विवेकी ( ज्ञानवान्) जागृत ( श्रद्धालु ) आरम्भ क्रिया से निवृत्त साधक जलाशय के समान निर्मल, उदार, सहज, निरासक्त और स्वरूप -मग्न हो सकते हैं। इनका संसर्ग पापी को भी संत बना सकता है। ये पुण्य के पुञ्ज हैं और जगत् के वातावरण को पवित्रता से भर देने वाले हैं। ये साधक मृत्यु की लेशमात्र भी परवाह नहीं करते हैं । जो प्राणी कर्त्तव्य-भ्रष्ट मार्गपतित होते हैं वे ही मृत्यु से घबराते हैं। ऐसे साधक मृत्यु का सहर्ष स्वागत करते हैं - ऐसे पुरुष मुक्ति का मार्ग तय करते जाते हैं और दूसरों को भी प्रेरणा करते जाते हैं ।
महर्षि साधकों की और सरोवर की तुलना करके सूत्रकार सभी साधकों को यह कहना चाहते हैं कि तुम भी इनका -सरोवर और महर्षियों का लक्ष्य सामने रखकर अपने जीवन का विकास करो । "सम्ममेयंति पासह” कह कर सूत्रकार ने यह सूचित किया है कि अपनी विवेकबुद्धि से प्रत्येक कार्य का अवलोकन करना चाहिए। सुधर्मास्वामी कहते हैं कि हे जम्बू ! मेरे कहने से ही तू इस तत्त्व को न मान लेकिन अपनी कुशाग्र बुद्धि द्वारा इस पर सम्यग् विचार कर और तत्पश्चात् उसे स्वीकार कर। इससे यह फलित होता है कि श्रद्धा रखनी चाहिए किन्तु वह श्रद्धा श्रन्ध न हो । अपनी विवेक-बुद्धि, श्रागम के वचन और सत्पुरुषों के अनुभव के समन्वय द्वारा श्रद्धा करनी चाहिए ।
वितिमिच्छासमावन्नेणं श्रप्पा येणं नो लहइ समाहिं, सिया वेगे अणुगच्छति, सिया वेगे अनुगच्छंति, श्रणुगच्छमाणेहिं श्रणुगच्छमाणे कहं न निव्विज्जे तमेव सचं नीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं ।
संस्कृतच्छाया - विचिकित्सा समापन्नेनात्मना नो लभते समाधिं । सिताः वैके अनुगच्छन्ति, असिता वा एके अनुगच्छन्ति, अनुगच्छन्तिः अननुगच्छन् कथं न निर्विद्येत ? तदेव सत्यं निःशङ्कम् यज्जिनैः प्रवेदितम् ।
शब्दार्थ — वितिगिच्छासमावनेणं - फल होगा या नहीं ऐसी शंका रखने वाले । अप्पा = आत्मा को । समाहि= समाधि । नो लहइ नहीं मिलती है। एगे - एक एक । सिया वा=गृहस्थ भी । अणुगच्छन्ति = श्राचार्य के वचनों को समझ सकते हैं । असिया वेगे अथवा कोई साधु भी । श्रणुगच्छति = आचार्य के वचन को समझ सकते हैं । अनुगच्छमाणेहिं-समझने वालों के साथ रहने पर व उनके समझाने पर । अणणुगच्छमाणे - अगर कोई साधक तत्व नहीं समझ सकता है तो | कहं न निविज्जे- उसे खेद क्यों न हो १ तमेव = वही । सच्चं सत्य है । 'नीसंकं = शङ्कारहित है । जं= जो । जिहिं = जिनेश्वर देवों ने। पवेइयं = प्रवेदित किया है।
भावार्थ - हे जम्बू ! जो साधक "फल होगा या नहीं" इस प्रकार संशय रखता है वह समाधि को प्राप्त नहीं कर सकता है । महापुरुष आचार्यों के वचनों को एक-एक गृहस्थ समझ सकते हैं, एक-एक
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