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लोकसार नाम पञ्चम अध्ययन - पञ्चमोद्देशकः
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गत उद्देशक में एक-चर्या का निषेध करके गुरु निश्रित रहने का उपदेश दिया गया था। अब इस उद्देशक के प्रारम्भ में सूत्रकार यह फरमाते हैं कि आचार्य और महर्षि साधक कैसे होते हैं ? हद (जलाशय) उपमाद्वारा सूत्रकार आचार्य और महर्षियों की गम्भीरता, पवित्रता, उदारता और स्वरूपमनता का दिग्दर्शन कराते हुए प्रत्येक साधक को यह उच्च भूमिका प्राप्त करने की प्रेरणा करते हैं । यह अवस्था प्राप्त करने के लिए आत्म-श्रद्धा- अखण्ड विश्वास की जागृति होना श्रावश्यक है । विकल्पों का नाश और सत्पुरुषों के अनुभव, आगमवचन और विवेकबुद्धि के समन्वय से शुद्ध श्रद्धा उत्पन्न होती है। श्रद्धा का स्थान हृदय है | श्रद्धारहित क्रिया निष्प्राण होती है। अतएव शुद्ध श्रद्धा की जागृति की प्रेरणा इस उद्देशक गई है । सूत्रकार हृद की उपमा के द्वारा ही सूत्र प्रारम्भ करते हैं:
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सेमि तंजा विहरए पडिपुराणे समंसि भोमे चिट्ठर उवसंतरए सारक्खमाणे, से चिट्ठs सोयमज्झगए से पास सव्वधो गुत्ते, पास लोए महेसिणो जे य पन्नाणमंता पबुद्धा यारम्भोवरया सम्ममेयंति पासह कालस्स कंखए परिव्वयंति त्ति बेमि ।
संस्कृतच्छाया—तद् ब्रवीमि तद्यथा अपि हृदः प्रतिपूर्णः समे भूभागे तिष्ठति, उपशतिरजः सारक्षन, स तिष्ठति स्रोतो मध्यगतः, स पश्य सर्वतो गुप्तः, पश्य लोके महर्षयः ये च प्रज्ञानवन्तः, प्रबुद्धाः, आरम्भोपरता सम्यगेतत्पश्यत, कालस्य काङ्क्षया परिव्रजन्ति इति ब्रवीमि ।
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शब्दार्थ - से बेमि- मैं कहता हूँ । 'जहा = यथा । श्रवि हर कोई जलाशय । पडिंपुराणो= जल से भरा हुआ | समंसि भोमे = समान भूभाग पर । उवसंतरए = मलिनता को दूर करेस्वच्छ | सारक्खमाणे=सुरक्षित । चिट्ठह रहता है । स इसी तरह आचार्य । सोयमज्भगए ज्ञान रूप स्रोत के मध्य में रहे हुए । सव्वओ = सभी तरह से । गुत्ते = गुप्तियों से गुप्त | चिट्ठह रहते हैं। से पास=यह तू देख | लोए = लोक में अन्य भी । महेसिणो = महर्षि साधु हैं। पास = उन्हें देख । जे य= जो | पन्नाणमंता = विशेष ज्ञानवान् हैं । पबुद्धा सम्यग्श्रद्धान वाले हैं। आरम्भोवरया = सावध अनुष्ठान से निवृत्त हैं । कालस्स कंखाए = समाधि मरण की इच्छा रखते हुए । परिष्वति =