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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पञ्चम अध्ययन चतुर्थोद्देशक ] [ ३६६ कर लेना चाहिए। जिस प्रकार सूर्य की ओर दृष्टि पड़ते ही उसका संहरण कर लिया जाता है उसी तरह स्त्री की चेष्टात्रों और अङ्गोपाङ्गों पर दृष्टि पड़ते ही उसे शीघ्र हटा लेनी चाहिए। सभी मोहक पदार्थों में का मोह अति प्रबल होता है और यह मोह अति घातक होता है और आत्मा को बेभान कर देता है। स्त्री-मोह से मुग्ध बना हुआ आत्मा विकृति के हाथों बिक जाता है। वह गुलाम हो जाता है और स्वतंत्र चेतन जड़ के समान परतंत्र हो जाता है । आत्मा की इस दशा में भयंकर अधोगति होती है । यद्यपि सम्पूर्ण वासना पर विजय पाना कठिन है तो भी साधक का यह कर्त्तव्य है कि वह इसको अपना लक्ष्य बनावे और धीरे २ अपने मन को ऐसा बना ले कि वह स्त्री आदि मोहक पदार्थों की ओर न जावे । मन पर पूरा काबू न भी हो तब भी क्रियात्मक रूप से वासना का सर्वथा त्याग करना ही चाहिए। क्रियात्मक वासना पर पूरा नियंत्रण रखा जायगा और मन पर विजय पाने का लक्ष्य बना रहेगा तो अवश्य ही मन पर विजय पाई जा सकती है और आत्मा वासना-मुक्त हो सकता है। इसके लिए आत्मचिन्तन, बाह्य पदार्थों की असारता, स्त्री शरीर की अशुचि का चिंतन, मनन और निदिध्यासन की आवश्यकता है । विरक्त भावनाओं के प्रबल वेग के द्वारा वासना पर विजय पाई जा सकती है। अतएव साधक प्राणान्त तक वासना की क्रियात्मक वृत्ति पर पूरा नियंत्रण रखे और मन पर विजय पाने की कोशिश करे । मानसिक-वासना के विजय के लिए सूत्रकार उपाय बताते हैं: उबाहिजमाणे गामधम्मेहिं अवि निब्बलास श्रवि श्रोमोयरियं कुज्जा अवि उड्ढ ठाणं ठाइजा, अवि गामाणुगामं दूइज्जिज्जा, अवि श्राहारं बुच्छिदिजा वि च इत्थीसु मां । संस्कृतच्छाया— उद्वाध्यमानः ग्रामधर्मैरपि निर्बलाशकः, अपि श्रवमौदर्य कुज्जा, अपि ऊर्ध्वस्थानं तिष्ठेत्, अपि ग्रामानुग्रामं विहरेत्, अप्याहारं व्यवच्छिन्द्यात् अपि त्यजेत् स्त्रीषु मनः । शब्दार्थ — गामधम्मेहि-इन्द्रियविषयों से। उच्चाहिञ्जमारणे= पीड़ित होने पर । अवि= कभी । निब्बलासए - निर्बल आहार करे । अवि ओमोयरियं = कभी अल्पाहार करे। अवि उड़ ठाणं=कभी ऊँचे स्थान पर रहकर । ठाइजा कायोत्सर्ग से स्थित रहे । श्रवि गामाणुगामं कभी एक ग्राम से दूसरे ग्राम | दूइजिजा = विहार कर दे। अवि आहारं = कभी आहार का । बुच्छिदिजा= सर्वथा विच्छेद कर दे | अवि = किन्तु । इत्थीसु = स्त्रियों में । मणं च मन प्रवृत्त करना छोड़े । भावार्थ - हे आत्मार्थी शिष्य ! प्रयत्न करते हुए भी वासना के पूर्वाध्यासों के कारण मुनि साधक विषयों से पीड़ित हो तो उसे ( इन्द्रियों की उत्तेजना को कम करने के लिए ) लूखा-सूखा श्राहार करना चाहिए, भूख से अल्प खाना चाहिए, एकस्थान पर खड़े होकर कायोत्सर्ग करना चाहिए, ग्रामान्तर में चले जाना चाहिए, इतना करने पर भी मन वश में न हो तो आहार का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए लेकिन स्त्री-संग में कभी न फँसना चाहिए -- ब्रह्मचर्य - सेवन कदापि न करना चाहिए । For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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