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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४००] [प्राचारा-सूत्रम् - विवेचन-इस सूत्र में सूत्रकार महात्मा वासना को वश में करने के प्रयोगों के सम्बन्ध में उपदेश फरमाते हैं । विषयोत्पादक पदार्थों का त्याग कर देने के बाद भी विषयों की जागृति होना सम्भव है। किन किन बाह्य और आभ्यन्तर कारणों द्वारा विषय-जागृति की सम्भावना रहती है इसका सूक्ष्म अवलोकन करने के बाद सूत्रकार फरमाते हैं:-विषयों की उत्तेजना का आहार के साथ भी बड़ा भारी सम्बन्ध है। "जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन" यह लौकिक कहावत मननीय है। रसीला, स्वादिष्ट, अति मधुर, तिक्त, चरका, अति खट्टा और घृतादि संयुक्त आहार वृत्ति को उग्र बनाता है। विश्वामित्र, पराशर आदि वन में निवास करने वाले और वन के फल और पानी का आहार करने वाले भी विषयों से हार गये तो जो घृतादि संयुक्त गरिष्ठ श्राहार करते हैं उनका विषयों पर विजय पाना कितना कठिन है यह सहज समझा जा सकता है । अतएव सूत्रकार यहाँ वासना-विजय के लिए प्रथम लूखा और सूखा आहार करने का फरमाते हैं । लूखा-सूखा आहार भी प्रमाण से अधिक कर लिया जाता है तो वही विकार को उत्पन्न करने वाला होता है अतएव सूत्रकार अल्पाहार करने का फरमाते हैं। साधारण रीति से ३२ कौर आहार शरीर के लिए पर्याप्त समझा गया है। आहार, शरीर के उपयोग के लिए एक आवश्यक वस्तु है। शरीर के लिए आहार है नकि आहार के लिए शरीर । यह सादी बात हरेक समझ सकता है । तदपि पदार्थों के स्वाभाविक रस को तेल, मिरची, खटाई आदि के द्वारा विकृत बनाकर और रसमय पदार्थों से रसीला बनाकर खाना खाया जाता है इससे यह प्रतीत होता है कि खाना जीवन के लिए नहीं है परन्तु जीवन खाने के लिए है । इस तरह व्यय और पाप की मात्रा दोनों ही बढ़ती है और पर्याप्त परिश्रम के अभाव में उस पौष्टिक आहार का इन्द्रियों पर बहुत बुरा असर होता है इसलिए लूखा और अल्प भाजन प्रत्येक साधक के शरीर और मन-दोनों के आरोग्य के लिए उपयोगी है यह निर्विवाद है। इसके बाद तीसरा प्रयोग एकस्थान पर रहकर कायोत्सर्ग करने का कहा गया है। यह प्रयोग शरीर को कसने के लिए है। शरीर को कसने से इन्द्रियों पर असर होता है और उनका वेग कम होता है। ये प्रयोग अत्यन्त उपयोगी हैं और साधक को बहुत बार पतन से बचा लेते हैं। इतना होने पर भी, इतने मात्र से वासना पर विजय नहीं हो पाती। इतना करने पर भी यदि वासना नहीं जाती है तो स्थानान्तर कर देना चाहिए । उस स्थान को छोड़कर अन्य स्थान पर चला जाना चाहिए। स्थान का भी बहुत प्रभाव पड़ता है। स्वाभाविक रीति से कोई स्थान ऐसा होता है जो पवित्र भावनाओं को जन्म देता है और कोई दूसरा स्थान ऐसा होता है जो विकारों को पोषण देता है । जहाँ त्यागी, तत्त्वचिन्तक महापुरुषों का प्रायः बहुत रहना हुआ हो वहाँ के निवासियों पर उसका अच्छा असर होता हुआ देखा गया है इसी तरह खराब वातावरण का भी असर पड़े बिना नहीं रहता । साधक को यदि यह मालूम दे कि यहाँ का वातावरण वासना को उत्तेजित करने वाला है तो उसको चाहिए कि वह स्थान का परिवर्तन करके अन्य स्थान पर चला जावे । इस दृष्टि से स्थानान्तर का प्रयोग लाभप्रद है। साधु ग्रामानुग्राम अप्रतिबन्ध विहारी होते हैं तदपि चातुर्मास के चार मास उन्हें एक स्थान पर रहने की आज्ञा है। इसका कारण यह है कि चातुर्मास में जीवों की उत्पत्ति विशेष होने से उनकी अयतना की सम्भावना रहती है उससे बचने के लिए तथा ज्ञान ध्यान तथा तप के लिए भी यह ऋतु अनुकूल होने से चातुर्मासार्थ एक स्थान पर रहने की जैनशास्त्र आज्ञा प्रदान करता है। चातुर्मास में विहार न करने की सूचना दी गई है परन्तु यहाँ चातुर्मास में भी विहार करने का कह दिया है इसके पीछे महान हेतु है। जैनदर्शन के सभी नियमोपनियम हेतुपुरस्सर बनाए गए हैं। प्रत्येक नियम का हेतु बराबर समझ कर उसका पालन करना चाहिए; यही उसकी मर्यादा है। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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