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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३६ ] - [आचारा-सूत्रम् मुझे क्या सुख देने वाली हैं अथवा मुझे क्या उपसर्ग करने वाली हैं ? ) इस संसार में जो स्त्रियां हैं (स्त्रियों के प्रति मोह है ) वे ही चित्त को लुभाने वाली हैं । उन्हें जानकर उनका त्याग करना चाहिए। यह हितशिक्षा प्रभु महावीर ने दी है (तू इसका चिन्तन कर)। विवेचन-अब तक एक-चर्या का निषेध करके गुरु की आराधना करने का कहा गया है। एकचर्या के पीछे प्रायः स्वच्छंदवृत्ति ही होती है। स्वच्छंदवृत्ति वाले व्यक्ति के दिल पर वी-मोह और अन्य मोहक पदार्थों का असर पड़े बिना नहीं रहता अतएव यहाँ सूत्रकार स्त्री-मोह की मीमांसा करते हैं। पहिले यह कहा जा चुका है कि लालसा और वासना ये दोनों संयमी साधक के लिए पतन की खाइयाँ हैं । साधक जरा भी गाफिल रहता है कि उसे लालसा और वासना आकर घेर लेती हैं। हिंसा का जन्म लालसा (लोभ) से है और मोह का जन्म वासना (कामविकार) से है। लालसा दिखाई देती है और वासना गुप्त रहती है अतएव वह ज्यादा भयंकर है । गुप्तरीति से ही वासना फलती फूलती है। सूत्रकार ने यहाँ साधक के विशेषण लगाये हैं इसका भी कुछ आशय है। सूत्रकार यह कहना चाहते हैं कि जो दीघदृष्टा-बहुज्ञानी, उपशान्त, पवित्र आचरण वाला, सद्गुणी और यतनावान् साधक है वह भी यदि गाफिल होता है तो उसका भी पतन होने में देर नहीं लगती। ऐसी उच्च भूमिका पर पहुँचा हुअा व्यक्ति भी वासना का सम्पूर्ण क्षय जब तक न हो जाय तब तक किन्हीं निमित्तों के मिलने से गिर सकता है । वासना का अंकुर जब तक बना रहता है वहाँ तक वह आत्मा को स्त्री आदि मोहक पदार्थों की ओर खींचता है । साधक यदि प्रबल वैराग्य भाव से युक्त है तो यह अंकुर दबा रहता है लेकिन ज्यों ही साधक थोड़ा-सा प्रमाद करता है, भावनाओं में जरा भी शिथिलता आती है त्यों ही यह अंकुर फूलने फलने लगता है। इसलिए सूत्रकार फरमाते हैं कि सदा भावनाओं की प्रबलता से वासना को कार्यरूप में परिणत न होने देना चाहिए। मन चले जाने के बाद भी वह वासना क्रियारूप में न परिणत हो इसकी सूचना इसमें दी गई है । मन चल है इसलिये वह इधर उधर दौड़ सकता है। उसे वश में करने के लिए ही साधना है । लेकिन मन वश में न हो तो भी क्रियात्मक रूप से वासना का सेवन न करना चाहिए। इसका कारण यह है कि जो क्रियात्मक रूप को प्राप्त कर चुकी है वह क्रिया दृढ़ हो जाती है और उसके संस्कार अत्यन्त मजबूत हो जाते हैं। मन जब तक पदार्थों पर जाता है तब तक तो उसका दृढ़ अध्यास रूप परिणमन नहीं होता लेकिन जब क्रिया हो जाती है तो वह अध्यास दृढ़ हो जाता है और वह साधक को बारबार पीड़ा देता है। इसलिए सूत्रकार यह फरमाते हैं कि मन स्त्री आदि की ओर आकर्षित हो (मोहित हो ) तब साधक को यह विचारना चाहिए कि इस वस्तु में मेरा कल्याण करने की शक्ति कितनी है ? ये स्त्रियाँ मेरा क्या उपकार कर सकती हैं ? अथवा ये मुझे क्या सुख देने वाली हैं ? मैं समदृष्टि हूँ, मैंने महाव्रत का भार उठा रक्खा है, मैंने शरद-ऋतु के चन्द्रमा के समान निर्मल कुल में जन्म लिया है, मैंने अकार्य न करने की प्रतिज्ञा ली है, मैंने सकल विषय-कषायों का त्याग करके संयम अङ्गीकार किया है इस प्रकार विचारों के बल से विषयों की ओर दौड़ते हुए मन का निग्रह करना चाहिए। वैराग्य की प्रबलता और सतत अभ्यास के द्वारा मन का निग्रह किया जा सकता है। साधक को यह विचारना चाहिए कि लोक में जितनी स्त्रियाँ हैं ( अर्थात् स्त्री के प्रति मोह है ) वह चित्त को मोहित कर देने वाली हैं। अतएव उनके हास्य, विलास, अङ्गोपाङ्ग का निरीक्षण और उनकी चेष्टाओं की ओर साधकों को तनिक भी ध्यान न देना चाहिए। कदाचित् दृष्टि पड़ जाय तो उसका संहरण For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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