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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रचम अध्ययन चतुर्थोदेशक ] [ ३६७ ले। ऐसा करने से वह उस पाप के बन्धन से मुक्त हो जाता है। कोई साधक एक भूल को छिपाने के लिए दूसरी भूल न करे इसका श्राचार्य ध्यान रखते हैं और भूल के मूल कारण को देखकर वे उसे दूर करने के लिए प्रायश्चित्त रूप औषधि प्रदान करते हैं । इस औषध द्वारा साधक का रोग दूर हो जाता है। इसलिए सत्पुरुष की आज्ञा का श्राराधक होना चाहिए। गुरु के द्वारा दिये गये प्रायश्चित्त को पुरस्कार समझना चाहिए। इससे मन में किसी प्रकार की ग्लानि का अनुभव न करना चाहिए । प्रायश्चित्त भूल सुधारने का अमोघ साधन है । ज्ञ-परिज्ञा द्वारा कर्म को जानकर शुद्ध रीति से प्रायश्चित्त द्वारा कर्म का अभाव करना चाहिए । I T तीर्थंकर देव का कथन है कि अप्रमादभाव से कर्म का अभाव होता है । प्रायश्चित्त भी अप्रमत्त होकर करना चाहिए । जो भूल एक बार हो गई है और उसके लिए प्रायश्चित्त ले लिया गया है तो दुबारा वह भूल न होनी चाहिए। दुबारा भूल न होने पावे इसके लिए सावधान रहना ही अप्रमाद है । अन्यथा भू करना और प्रायश्चित्त लेना, फिर भूल करना और प्रायश्चित्त लेना इससे कुछ लाभ नहीं है । इसीलिए सूत्रकार ने फरमाया है कि अप्रमत्तभाव से प्रायश्चित्त करना चाहिए। यह प्रायश्चित्त सकल फर्म का क्षय कर सकता है। सच्चे गुरु के समीप ही ऐसा प्रायश्चित्त हो सकता है अतएव सद्गुरु की आराधना करना आवश्यक एकलविहार और स्वच्छन्दाचार का त्याग करके सदा सत्पुरुष गुरुदेव के चरणों का अवलम्बन लेना चाहिए | इससे संयम की यथावत् आराधना हो सकती है । से पभूयदंसी पभूयपरिन्नाणे उवसंते, समिए, सहिए, सयाजए, दट्ठ विप्पडिवेes अप्पाणं किमेस जो करिस्सर ? एस से परमारामो जाओ लोगंमि इत्थी, मुाि हु एयं पवेइयं । संस्कृतच्छाया - सः प्रभूतदर्शी, प्रभूतपरिज्ञानः, उपशान्तः, समितः सहितः, सदायतः दृष्ट्वा विप्रतिवेदयति आत्मानं किमेष जनः कुर्यात् ? एषः स परमारामः याः लोके स्त्रियः, मुनिना एतत्प्रवोदितम् । शब्दार्थ - से वह । पभूयदंसी दीर्घदर्शी । पभूयपरित्राणे = बहु ज्ञानी । उवसंते= कषायों का शमन करने वाला । समिए = पाँच समिति से युक्त । सहिए- ज्ञानादि गुणों से युक्त | सयाज ए = सर्वदा यतनाशील मुनि । दट्टु - स्त्रियों को देखकर | अपा= अपने आपका । विप्पडिवेएइ = विचार करता है। एस जो यह स्त्रीजन । किं करिस्सह- मेरा क्या कर सकती हैं ? अथवा मुझे क्या सुख दे सकती हैं । जाओ =जो | लोगंमि = लोक में । इत्थी = स्त्रियाँ हैं। एस सेवे | परमारामो = चित्त को लुभाने वाली हैं। एयं = यह । मुखिया = वीर प्रभु ने | पवेइयं = फरमाया है । भावार्थ - हे आत्मार्थी जम्बू ! दीर्घदर्शी, बहुज्ञानी, उपशांत, पवित्र वृत्ति वाला, सद्गुणी और सदा यत्नवान् साधु स्त्रियों को देखकर यह विचारे कि ये मेरा क्या कल्याण करने वाली हैं ? ( अथवा For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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