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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [प्राचाराग-सूत्रम् जानकर किया हुआ हो । तं परिभाय उसे ज्ञ-परिज्ञा से जानकर । विवेगमेइ प्रायश्चित्त द्वारा दूर करना चाहिए । एवं इस प्रकार । से उस कर्म का । विवेगं क्षय | अप्पमाएण=अप्रमाद से होता है । वेयवी=ऐसा तीर्थकर । किट्टइ=फरमाते हैं । भावार्थ-गुरु-आराधक साधु, आते-जाते, लौटते, अवयवों का संकोच और फलाव करते, प्रारम्भ से निवृत्त होते और प्रमार्जनादि क्रिया करते हुए गुरु की अनुज्ञापूर्वक करे । कदाचित् गुणसम्पन्न मुनि के यतना से विविध क्रियाएँ करते हुए भी, शरीर के संस्पर्श से कोई जीव मरण प्राप्त करे अथवा कष्ट पावे तो उसका उसे इसी भव में वेदन योग्य कम का बंध पड़ता है । जो हिंसादि कार्य आकुट्टीबुद्धि से-जानते हुए—किये जाते हैं वे प्राचार्यादि के पास से प्रायश्चित्त लेने से क्षय होते हैं। वह प्रायश्चित्त अप्रमत्त रूप से किया जाना चाहिए ऐसा तीर्थकर देव का फरमान है । विवेचन-गुरु की आराधना करने वाला साधक प्रत्येक कार्य गुरु की श्राज्ञापूर्वक ही करता है। वह अपना सर्वस्व गुरु को समर्पण कर देता है अतएव गुरु जैसा कहते हैं वैसा ही वह करता है । उठते, बैठते, चलते-फिरते, प्रमार्जन करते वह सदा गुरु-अनुज्ञा से उपयोग युक्त होता है। वह प्रत्येक क्रिया अप्रमत्त भाव से करता है । गुरु के आदेशानुसार क्रिया करने वाला साधक कर्म-मैल से लिप्त नहीं होता। कई बार साधक पाप शब्द मात्र से भी इतनी हद तक भयभीत बन जाता है कि वह जीवन के विकास के लिए उपयोगी क्रियाएँ करता हुआ भी डरता है। प्रमार्जन आदि में भी हलन-चलन होता है अतएव उसमें भी उसे पाप का आभास होने लगता है। उसे हलन चलन और क्रियामात्र में पाप दिखाई देने लगता है । तब वह पापभीरू विह्वल हो जाता है और उसे मार्ग नहीं सूझता। वह जड़तुल्य निष्क्रिय बन जाता है ऐसे समय में सद्गुरु देव उसे समझाते है कि वत्स ! विह्वल न हो । पापरहित होने के लिए जड़तुल्य निष्क्रिय बनने की आवश्यकता नहीं है। पाप का सम्बन्ध शब्द से नहीं लेकिन मुख्यतः अध्यवसायों पर और गौणतः क्रियाओं पर उसका आधार है। अतएव पाप का विवेक समझो और अध्यवसायों को शुद्ध रखो। अध्यवसायों के शुद्ध होते हुए भी जो प्राणी का वध होता है उससे कर्मबन्ध अति सूक्ष्म होता है और वह भी उसी भव में क्षीण हो जाता है। अध्यवसायों से कर्मबन्ध में विचित्रता होती है। शैलेशी अवस्था में मशकादि ( मच्छरादि ) काया का संस्पर्श होने से प्राण त्यागते हैं तो भी वहाँ बन्ध का उपादान कारण योग नहीं है अतएव वहाँ कर्म-बन्ध नहीं होता। उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगी केवलियों के योग के कारण बन्ध तो पड़ता है लेकिन स्थिति का कारण कषाय न होने से वह समयमात्र का ही होता है । अप्रमत्त यति के जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट क्रोडाक्रोडी सागरोपम का बन्ध होता है। प्रमत्तसंयत से अनाकुट्टि से जो अकस्मात् प्राणी का घात हो जाता है उससे जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट क्रोडाकोड़ी सागरोपम का बन्ध होता है । अप्रमादी से प्रमादी के बन्ध की स्थिति विशेष है। यह कर्मबन्ध इसी भव में अनुभव में आ जाता है और क्षीण हो जाता है। तात्पर्य यह है कि प्रमत्तसंयत अनाकुट्टि (भूल से-अनजान से ) से जो हिंसा करता है उसका फल इसी भव में प्राप्त हो जाता है और इसी भव में वह क्षीण हो जाता है। लेकिन जो कर्म आकुट्टिपूर्वक (आगमोक्त कारण के अतिरिक्त अन्य किसी कारण से ) किया जाता है उसका क्षय आचार्यादि के पास प्रायश्चित्त लेने से होता है। साधक एक भूल करके उसे छिपाने का प्रयत्न न करे लेकिन उस भूल को गुरु के पास प्रकट करे और उसका दण्ड-प्रायश्चित्त For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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