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पञ्चम अध्ययन चतुर्थोद्देशक ]
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समर्पण के बिना भक्ति नहीं होती। कई साधक अपनी बातों को साथ में लेकर गुरु की शोध करते हैं लेकिन वे इससे लाभ नहीं उठा सकते। गुरु की दृष्टि से देखना अर्थात् गुरु की आज्ञा का तथारूप से पान करना है । गुरु जिसे हेय, उपादेय या उपेक्षणीय समझते हैं उसे उसी तरह हेय, उपादेय, उपेक्षणीय समझना चाहिए। ( २ ) गुरु ने जिस निस्संगता का उपदेश दिया है उसे स्वीकार करके अनासक्त बनना चाहिए । ( ३ ) सद्गुरु को प्रत्येक कार्य में प्रधानता देनी चाहिए। अथवा सद्गुरु जो कुछ प्रदान करे उसे सहर्ष स्वीकार करे । गुरु शिक्षा दे या प्रायश्चित्त दे उसे सहर्ष - प्रकृति प्रतिकूल होते हुए भी - स्वीकार करना चाहिए । (४) गुरुदेव की वाणी पर सम्पूर्ण श्रद्धा रख कर तदनुसार जीवन बनाना चाहिए। जितने अंश में गुरुदेव पर श्रद्धा होती है उतने ही अंश में गुरु का संग फलीभूत होता है । गुरु के समीप रहना, यतनापूर्वक समस्त क्रियाएँ करना, गुरु के मनोगत भावों को चेष्टादि द्वारा जानकर तदनुकूल वर्ताव करना और छाया के समान गुरु के साथ रहना, गुरु के कहीं चले जाने पर उनके आने की प्रतीक्षा करना, इस प्रकार गुरु की आराधना करनी चाहिए। साथ ही सूत्रकार यह फरमाते हैं कि उपयोगपूर्वक प्रत्येक क्रिया करनी चाहिए । गुरुभक्ति अंधी नहीं होनी चाहिए वरन विवेक पूर्वक होनी चाहिए। शिष्य की एक भी क्रिया गुरु की आज्ञा से बाहर नहीं होनी चाहिए और गुरु की एक भी आज्ञा शिष्य के एकान्त हितहित नहीं होनी चाहिए। इस प्रकार गुरु और शिष्य का पारस्परिक सम्बन्ध पवित्र और निर्मल होना चाहिए ।
से अभिकममाणे पडिकममाणे, संकुचमाणे, पसारेमाणे, विणिवट्टमाणे संपलिमज्जमाणे एगया गुणसमियस्तरीय कायसंफासं समणुचिन्ना, एगतिया पाणा उदायंति, इहलो गवेयणविज्जावडियं जं प्राउट्टिकयं कम्मं तं परिन्नाय विवेगमेइ, एवं से अप्पमाएण विवेगं किट्टइ वेयवी ।
संस्कृतच्छाया—सो अभिक्रामन् प्रतिक्रामन्, संकुचन्, प्रसारयन्, विनिवर्त्तमानः संपरिमृजन् एकदा गुणसमितस्य, रयिमाणस्य कायसंस्पर्श समनुचीर्णा : एके प्राणाः अपद्रान्ति, इहलोकवेदनवेद्यापतितं, यदाकुट्टीकृतं कर्म तत्परिज्ञाय विवेकमेति एवं तस्याप्रमादेन विवेक कीर्त्तयति वेदवित् ।
शब्दार्थ — से वह गुरु के उपदेशानुसार करने वाला साधु | अभिकममाणे-आते हुए, जाते हुए | पडिकममाणे = लौटते हुए । संकुचमाणे श्रवयवों का संकोच करते हुए । पसारेमाणे = अवयवों को फैलाते हुए । विणिवट्टमाणे = समस्त अशुभ व्यापार से निवृत्त होते हुए । संपलिमञ्जमाणे=रजोहरणादि से प्रमार्जन करते हुए सदा गुरु की अनुज्ञापूर्वक विचरे । एगया = कदाचित् । गुणसमियस्स=सद्गुणी | रीयमाणस्स = सभी क्रियाओं में उपयोगपूर्वक वर्ताव करने वाले साधु के । कायसंफासं काया के स्पर्श में । समणुचिन्ना - आये हुए । एगतिया = कोई २ । पाणा = प्राणी | उद्दायंति = प्राणरहित हो जाते हैं तो । इहलोगवेयगविज्जावडियं = उस पाप का इसी भव में अनुभव होकर क्षय हो जाता है। जं=जो । आउट्टिकयं कम्मं कर्म श्राकुट्टिपूर्वक -
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