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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३६४] [ श्राचाराग-सूत्रम् विवेचन-पूर्व के सूत्र में एक-चर्या का निषेध किया गया है। इस सूत्र के प्रारम्भ में यह बताया गया है कि साधक सहज मिलने वाली गच्छ की प्रेरणा छोड़कर क्यों अकेला विचरने लगता है। सूत्रकार फरमाते हैं कि तप संयमादि अनुष्ठान में सीदाते हुए प्रमाद से स्खलित शिष्यों को जब गुरु हितशिक्षा (अनुशासन) देते हैं तब कितनेक परमार्थ को न समझने वाले शिष्य गुरु के अनुशासन को अपना अपमान समझ कर ऋद्ध हो जाते हैं। वे सोचते हैं कि गुरु ने मुझे इतने साधुओं के बीच में क्यों उपालम्भ दिया ? मैंने क्या किया ? दूसरे भी तो ऐसा करते हैं। जब दूसरे ऐसा करते हैं तो मुझे वैसा करने का अधिकार क्यों नहीं है ? गुरु उनसे तो कुछ नहीं कहते हैं केवल मुझे ही कहते हैं ? धिक्कार है इस जीवन को! इस प्रकार महामोह के उदय से बुद्धि के प्रकाश पर आवरण आ जाने से वे आचार-विचार का विचार न करके तथा भविष्य में क्या हाल होगा इत्यादि सोचे बिना गच्छ से अलग होकर स्वच्छन्दाचारी बन जाते हैं । वे अभिमान से ग्रसित हो जाते हैं। उनकी आत्मा पर वृत्तियों का वेग विजयी बन जाता है जिसके फलस्वरूप उनका वैराग्य, संयम और जिज्ञासा सब अकारथ हो जाते हैं। उनमें संकुचितता आ जाती है और अहंवृत्ति पैदा होती है । अहंकार का अर्थ है विराट अात्मस्वरूप को छोटे से व्यक्तित्व में समा देना । ज्यों-ज्यों अहंकार बढ़ता है त्यों-त्यों प्राणी अपने आपको दुनिया से महान समझता है, त्यों-त्यों वह अज्ञान की अन्धेरी खाई में डूबता जाता है । वह अभिमान के पर्वत पर चढ़ता है लेकिन यह नहीं जानता कि मैं गिरने पर चकनाचूर हो जाऊँगा। मिथ्याभिमान से ग्रसित होकर अनुशासन दिये जाने पर विचारता है कि मैं जाति, कुल, बल, ज्ञान आदि से उन्नत हूँ-मेरा भी गुरु तिरस्कार करते हैं ! यों वह अपनी मूढ़ता से गच्छ से बाहर निकल जाता है अथवा गच्छ से बाहर निकलने पर किसी ऐरे-गेरे व्यक्ति ने उसकी तारीफ कर दी कि यह उच्च कुल में उत्पन्न हुए हैं, सुन्दर स्वरूप वाले हैं, बोलने में बड़े कुशल हैं, वक्ता हैं, सौभाग्यशील हैं इस प्रकार सच्ची-झूठी तारीफ सुनकर वह गर्व से फूल उठता है और चारित्र मोह के द्वारा विवेक-शून्य बनता है। जिस प्रकार समुद्र से निकली हुई मछली विनाश को प्राप्त करती है उसी तरह गच्छ से निकला हुआ स्वच्छन्दाचारी भयंकर दुखों को प्राप्त करता है। एकचारी होकर वह ऐसे दुखों को वेदता है जिसकी उसने पहिले कल्पना भी नहीं की थी। वह व्यक्ति अनेक निमित्तों से उत्पन्न होने वाली वेदनाओं का अतिक्रमण नहीं कर सकता है। वह अज्ञानी और अतत्त्वदर्शी यह नहीं जानता कि यह वेदना तो मेरे स्वयं के ही कर्मों का फल है । दूसरे व्यक्ति तो निमित्तमात्र हैं। यह उच्च भावना न होने से उसे कष्ट सहन करना भारी हो जाता है । यह एक-चर्या का दुष्परिणाम है यह कहकर आचार्य शिष्य से कहते हैं कि हे शिष्य ! तुम्हारा यह हाल न हो । श्रीमद् वीर जिनेश्वर ने यह अभिप्राय व्यक्त किए हैं । इन्हें समझ कर स्वच्छन्दाचार से निवृत्ति करनी चाहिए और सदा गुरुकुल में रहते हुए आचार्य की आराधना करनी चाहिए। . - आचार्य की आराधना किस प्रकार करनी चाहिए ? सद्गुरु की सेवा, भक्ति या सत्संग कब फलित होता है ? इसकी स्पष्टता भी सूत्रकार ने बतायी है। गुरु के समीप में रहे और गुरु की आज्ञा न .माने तो वह भी स्वच्छन्दाचार ही है। ऐसे गुरु के समीप में रहने वाले-गच्छ में रहने वाले भी स्वच्छन्दाचारी ही हैं। उनका गच्छ में रहना भी निरर्थक हैं । उनको इससे कुछ भी लाभ नहीं होता । गुरु के समीप रहकर किस प्रकार वर्ताव करना चाहिए सो सूत्रकार बताते हैं: (१) सद्गुरु के द्वारा बतायी हुई दृष्टि से अवलोकन करना यह गुरुभक्ति का प्रथम रूप है। अपनी दृष्टि को छोड़कर जब साधक गुरु की दृष्टि से ही देखता है तो वह इष्ट फल प्राप्त कर सकता है। जब तक व्यक्ति अपनी दृष्टि को काम में लेता है तब तक वह गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण नहीं कर सकता। पूर्ण For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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