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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ आचाराङ्ग-सूत्रम् १० ] इस शंका का समाधान करते हुए टीकाकार कहते हैं कि 'नो' शब्द के द्वारा निषेध करने का विशेष प्रयोजन है । वह यह है कि यदि अकार आदि से संज्ञा का निषेध करते तो सर्वथा निषेध हो जाता । जैसे 'न घटः श्रघटः' ऐसा कहने से घट का सर्वथा निषेध हो जाता है उसी तरह 'नसराणा श्रसरणा' कहने से संज्ञा का सर्वथा निषेध हो जाता। यह इष्ट नहीं है। किसी भी जीव में संज्ञा का सर्वथा अभाव कभी नहीं हो सकता । चाहे जितने घने बादलों का आवरण होने पर भी सूर्य का प्रकाश इतना तो बना रहता ही है जिससे दिन और रात्रि का भेद मालूम किया जा सके। इसी तरह चाहे जितना घना ज्ञानावरणीय कर्म का आवरण हो तो भी थोड़ा बहुत ज्ञान तो जीव में अवश्य बना रहता है । यदि ऐसा न हो तो जीव-अजीव का भेद ही न रहे। इसलिए किसी भी जीव में सर्वथा संज्ञा का अभाव नहीं होता। यदि 'नो' शब्द से निषेध न करते तो सर्वथा निषेध हो जाता । इस अनिष्ट का परिहार करने के लिए देश-निषेध वाची 'नो' शब्द के द्वारा संज्ञा का निषेध किया गया है । इसका अर्थ यह है कि उक्त प्रकार के जीवों में सर्वथा संज्ञा का अभाव नहीं अपितु विशिष्ट संज्ञा का अभाव होता है । अर्थात् आत्मादि पदार्थों का स्वरूप, जीव का भवान्तर में जाना-आना आदि का उन्हें ज्ञान नहीं होता । सामान्य संज्ञाएँ तो उनमें होती ही हैं। प्रज्ञापना सूत्र में बताया है कि - श्राहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा, क्रोधसंज्ञा, मानसंज्ञा, मायासंज्ञा, लोभसंज्ञा, ओघसंज्ञा और लोकसंज्ञा- ये दस संज्ञाएँ प्राणीमात्र को होती हैं। इनका निषेध न हो जाय इसलिए 'नो' शब्द द्वारा संज्ञा का देशनिषेध किया गया है । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir संज्ञा का सामान्य अर्थ ज्ञान होता है। संज्ञा के दो भेद किये गये हैं- ज्ञानसंज्ञा और अनुभवन संज्ञा । निर्युक्लिकार कहते हैं मति होइ जाणणा पुण अणुभवणा कम्मसंजुत्ता अर्थात् - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि पाँच ज्ञान रूप संज्ञा, ज्ञानसंज्ञा है और अपने कर्मोदय से होने वाली आहारादि की अभिलाषा रूप संज्ञा अनुभवन संज्ञा है । अनुभवन संज्ञा के १६ भेद हैं श्राहार, भय, परिग्रह, मैथुन, सुख, दुख, मोह, विचिकित्सा (शका), क्रोध, मान, माया, लोभ, शोक, लोक, धर्म और ओघ संज्ञा । प्रस्तुत सूत्र में अनुभवन संज्ञा से प्रयोजन न होकर ज्ञानसंज्ञा का ही प्रयोजन है । इसका अभिप्राय यह है कि किन्हीं २ प्राणियों को यह विशिष्ट ज्ञान नहीं होता कि वे पूर्व दिशा से आये हैं पश्चिम दिशा से उत्तर से आये हैं या दक्षिण से, ऊर्ध्वदिशा से आये हैं या अधोदिशा से । इस सूत्र में सूत्रकार ने दिशाओं का निर्देश किया है। दिशा शब्द का निक्षेप करते हुए निर्युक्लिकार कहते हैं: ari aur aar खित्ते तावे य पण्णवगभावे । एस दिसानिक्खेवो सत्तविहो होइ गायवो ॥ अर्थात्-नामदिशा, स्थापनादिशा, द्रव्यदिशा, क्षेत्रदिशा, तापदिशा, प्रज्ञापकदिशा और भावदिशा यह सात तरह का दिनिक्षेप है ! For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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