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प्रथम उद्देशक ]
[ ११
किसी भी वस्तु का नाम, दिशा हो तो वह नाम दिशा है। जम्बूद्वीप आदि के मानचित्र (नक्षे) में दिशाओं के विभाग की स्थापना करना स्थापना दिशा है । जघन्यतः तेरह प्रदेशात्मक द्रव्य में दस दिशाओं के विभाग की कल्पना करना द्रव्यदिशा है । मेरुपर्वत पर रहे हुए आठ आकाशप्रदेशात्मक रूचक ही दिशा और विदिशा का उत्पत्तिस्थान है। उसी से चार महादिशा और चार विदिशा तथा ऊर्ध्व एवं अधोदिशा का प्रारम्भ माना गया है । यह क्षेत्रदिशा है । जिसके लिए सूर्य जिस दिशा में उदय होता है उसके लिए वह पूर्व दिशा है और जिधर श्रस्त होता है वह पश्चिम दिशा है। दाहिनी ओर दक्षिण दिशा है और बायीं ओर उत्तरदिशा है। यह ताप-दिशा कहलाती हैं । व्याख्याता जिस तरफ मुख करके बैठता है वह पूर्वदिशा है, उसकी पीठ की ओर पश्चिमदिशा है, दाहिनी ओर दक्षिण दिशा है और बाई ओर उत्तरदिशा है। इन चार दिशाओं के अन्तराल में चार विदिशाएँ हैं। इन पाठ के अन्तराल में पाठ और अन्तर हैं। ये सोलह दिशाएँ हुई इनमें उर्ध्व और अधोदिशा मिलाने से १८ प्रज्ञापक दिशाएँ होती हैं । भावदिशा का निरूपण करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं:
मणुया तिरिया काया तहग्गबीया चउक्कगा चउरो।
देवा नेरइया वा अट्ठारस होति भावदिसा ॥ अर्थात्-मनुष्य के चार भेद-सम्मूर्छिम मनुष्य, कर्मभूमि म०, अकर्मभूमि म० और अन्तरद्वीपज म० ।
तिर्यञ्च के चार भेद-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चन्द्रिय । काय के चार भेद-पृथ्वीकाय, भपकाय, तेउकाय और वायुकाय । वनस्पति के चार भेद-अनवीज, मूलबीज, स्कन्धबीज और पर्ववीज ।
उक्त १६, देव और नारकी ये अठारह भाव-दिशाएँ हैं। संसारी जीव इन अठारह अवस्थाओं में से किसी न किसी अवस्था में बना रहता है अतः ये भाव दिशाएँ कहलाती हैं ।
__ यद्यपि सूत्र में पूर्व, पश्चिम आदि प्रज्ञापक दिशाओं का साक्षात् कथन किया गया है, इसलिए प्रज्ञापकदिशा का ही यहाँ शधिकार समझा जाना चाहिए तदपि सामर्थ्य से भावदिशाओं का भी अधिकार समझना चाहिए । जीवों का गमनागमन जिन दिशाओं में स्पष्ट रूप से सम्भव है उन्हीं का यहां अधिकार समझना चाहिए । भावदिशा के बिना प्रज्ञापकदिशा में जीव का गमनागमन नहीं होता अतः सामथ्र्य से भावदिशा का भी यहां अधिकार समझना चाहिए ।
तात्पर्य यह हुआ कि इस संसार में कतिपय ऐसे प्राणी हैं जिन्हें यह ज्ञान और भान नहीं होता कि उनकी आत्मा किस दिशा से आई है और कहाँ जावेगी ? उन पर ज्ञानावरणीय कर्म का ऐसा आवरण पड़ा होता है, जिसके कारण वे यह नहीं जान पाते कि हम पूर्वभव में कौन थे और आगे के जन्म में क्या बनेंगे ?
जिस प्रकार कोई शराबी शराब पीकर बेभान बना हुआ इधर-उधर सड़क पर गिर जाता है और शराब की गंध के कारण कुत्ते उसका मुँह चाटने लगते हैं तो भी वह संज्ञा-शुन्य होकर पड़ा रहता है। ऐसे शराबी को कोई व्यक्ति उसके घर पहुँचा देता है और थोड़ी देर के बाद उसका
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