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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम उद्देशक ] तीर्थकर, वर्तमान काल के तीर्थङ्कर और अनागतकाल के तीर्थकर सब समान अर्थ का ही प्रतिपादन करते हैं । सबके वचनों में अर्थ की एकरूपता है अतएव आगम अर्थ की अपेक्षा अनादि अनन्त हैं। इस प्रकार सम्बन्ध-वाक्य का कथन करने के पश्चात् अब सूत्रकार, भगवान से सुने हुए अर्थ का प्रतिपादन करते हैं कि 'इहमेगेसिं नो सराणा भवति'-इस संसार में कई जीवों को आत्मशान नहीं होता। श्रात्मा स्फटिक मणि की तरह निर्मल और प्रकाश स्वभाव वाली है । उसका शुद्ध स्वरूप निरञ्जन और निराकार है । वह ज्ञान का पिण्ड है। वह सर्वज्ञ और सर्वदर्शी है किन्तु अनादिकाल से राग, द्वेष, मोह आदि के कारण उसका शुद्ध-स्वरूप शानावरणीयादि कर्म से श्रावृत्त होकर विभाव दशा को प्राप्त हो गया है। अतः ज्ञानावरणीय कर्म के आवरण के कारण कई जीवों को श्रान्मा का ज्ञान नहीं होता है। यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि प्रकाश स्वभावी आत्मा का आवरण कैसे हो सकता है ? यदि आवरण हो तो भी वह सतत रहना चाहिए। इस प्रश्न का समाधान यह है कि जैसे सूर्य और चन्द्र प्रकाशमय होने पर भी घने बादलों से श्रावृत्त होते हैं वैसे ही प्रात्मा प्रकाश-पिराड होते हए भी ज्ञानावरणीय श्रादि कमों से आवृत्त होती है। जिस प्रकार प्रबल पवन के कारण बादल दूर हट जाते हैं और सूर्य-चन्द्र का प्रकाशमय स्वरूप प्रकट हो जाता है उसी तरह ध्यान, भावना श्रादि के कारण कर्म-आवरण दूर हो जाने पर आत्मा का शुद्ध-स्वरूप प्रकट हो जाता है। पुनः शंका हो सकती है कि आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादिकाल से है, अनादि सम्बन्ध का प्रयत्न से विलय किस प्रकार हो सकता है ? जिस वस्तु की आदि है उसीका अन्त हो सकता है। जिसकी आदि नहीं उसका अन्त कैसे हो सकता है ? इसका उत्तर यह है कि मिट्टी और स्वर्ण का सम्बन्ध अनादि है तदपि खार और अग्नि के संयोग से सोना और मिट्टी अलग २ हो सकते हैं इसी तरह कर्म भी श्रात्मा से अलग हो सकते हैं । इससे यह फलित होता है कि वस्तु अनादि होते हुए भी सान्त हो सकती है । आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादि-सान्त है अतः वह पुरुषार्थ के द्वारा नष्ट किया जा सकता है। एक शंका और खड़ी होती है कि आत्मा अमूर्त है और कर्म मूर्त हैं। अमूर्त आत्मा का प्रावरण कैसे हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि जैसे अमूर्त चेतना-शक्ति का मदिरा आदि मूर्त मादक द्रव्य के कारण आवरण होता है वैसे ही अमूर्त यात्मा का भी मूर्त कर्मों से प्रावरण हो सकता है। शानावरणीय कर्म के तीव्र उदय से कई प्राणियों को प्रात्म-ज्ञान नहीं होता। सूत्रकार ने संज्ञा का निषेध करने के लिए "णो सरणा भवइ" कहा है । यहाँ शङ्काकार प्रश्न करता है कि यहां संशा का निषेध-मात्र अभिप्रेत है तो निषेधवाची अकार आदि लघु शब्द के होते हुए 'नो' शब्द से निषेध क्यों किया है। सूत्र में तो कम से कम अक्षर होने चाहिए। अक्षर-लाघव सूत्र की 'मख्य विशेषता है। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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