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[ आचाराङ्ग-सूत्रम्
त्याग में यावज्जीवन नहीं टिकते हैं। दीक्षा-प्रसङ्ग पर वर्धमान परिणाम होते हैं लेकिन बाद में परीषह एवं उपसर्गादि से व्याकुल होने से अथवा पूर्वाभ्यासों की प्रबलता होने से संयम के प्रति अरुचि पैदा हो जाती है और ऐसे साधक प्रव्रज्या से पतित हो जाते हैं। ऐसे साधक प्रथम तो सिंह के समान वीरता के साथ संसार से निकलते हैं और पश्चात् मोहोदय से गीदड़ के समान कायर बन जाते हैं। पूर्वाभ्यासों का असर मनोवृत्तियों पर बहुत अधिक पड़ा हुआ रहता है। यदि साधक अपनी संयम साधना में जरा भी असाव धान रहता है तो पूर्वाध्यासों को वेग मिल जाता है और वे साधक को पुनः संसार की ओर खींचते हैं । सावधान साधक बराबर संसार की ओर खिंचता चला जाता है। इसके लिए नन्दी षेण का दृष्टान्त वर्तमान है ।
प्रायः यह देखा जाता है कि पतन जब शुरू होता है तो वह न जाने कहाँ जाकर रुकता है ? पतनोन्मुख प्राणी का सब ओर से पतन होता है। ऊँचा चढ़ा हुआ व्यक्ति जब गिरता है तो उसे विशेष चोट लगती है और वह अधिक नीचे गिरता है। यही हाल संयम से गिरने वालों का है। संयम से पतित होने के साथ ही साथ कई व्यक्ति दर्शन- सम्यक्त्व से भी भ्रष्ट हो जाते हैं। यह उनके पतन की उत्कृष्टता है। इसके लिए गोष्ठामहिला का उदाहरण समझना चाहिए ।
तृतीय भङ्ग प्रभाव रूप है अतएव सूत्र में उसका ग्रहण नहीं है । तीसरे भङ्ग का अर्थ है प्रथम थत नहीं होते हैं और बाद में गिरते हैं । यह असंभव है । जिसका उत्थान नहीं उसका पतन क्या हो सकता है ? पतन उसी का होता है जिसका प्रथम उत्थान हुआ हो । उत्थान के होने पर पतन की चिन्ता हो सकती हैं । सूर्य उदय होता है तो उसका अस्त भी होता है। जिसका उदय ही नहीं उसका अस्त क्या होगा ? धर्मी के होने पर ही धर्म का विचार हो सकता है। जब धर्मी (गुणी ) ही नहीं तो धर्म ( गुण) कहाँ से हो सकता है ? जिसने प्रव्रज्या अंगीकार नहीं की वह प्रव्रज्या से पतित कैसे होगा ? अतएव यह . तृतीय भंग असद् रूप होने से सूत्र में नहीं दिखाया गया है ।
चतुर्थभंग "नो पूर्वोत्थायी नो पश्चान्निपाती" है । इसका अर्थ यह है कि जिसने न तो संयम अंगीकार किया है और न जो संयम से पतित है। ऐसे गृहस्थ इत्यादिक अविरती हैं । सम्पूर्ण विरति के अभाव से गृहस्थ प्रथम भी उत्थित नहीं है और पश्चात् पतनशील भी नहीं है क्योंकि उत्थान के बाद ही पतन होता है।
जो अन्य शाक्यादि अपने आपको यति और साधु कहते हैं वे भी सावद्य अनुष्ठान करते हैं अतएव पूर्व भी उत्थान नहीं है और उत्थान के बिना पतन नहीं होता अतएव उनको इस चतुर्थभंग में समझना चाहिए। इसी तरह जो स्वतीर्थी हैं परन्तु शिथिलाचारी और पार्श्वस्थ (पासत्था) हैं वे भी गृहस्थतुल्य ही हैं । जिन्होंने लोक को ( सांसारिक पदार्थों को ) ज्ञ-परिज्ञा द्वारा जानकर एवं प्रत्याख्यान- परिज्ञा द्वारा छोड़ दिया है तदपि जो अपनी प्रतिज्ञा को भूलकर पुनः सांसारिक पदार्थों की इच्छा रखते हैं या गृहस्थों पर अनुचित और अनैषणीय रूप से आधा कर्म्म आहारादि ग्रहण द्वारा आश्रित रहते हैं वे गृहस्थ ही है ।
यहाँ यह शंका की जा सकती है कि गृहस्थों को नो पूर्वोत्थायी नो पश्चान्निपाती कहा सो तो ठीक है क्योंकि उन्होंने महात्रतादि की प्रतिज्ञा नहीं की है लेकिन शाक्यादि इस चतुर्थभंग में कैसे आ सकते हैं. क्योंकि वे तो दीक्षित होते हैं अतएव उन्हें पूर्वोत्थित क्यों न कहा जाय ? इसका समाधान यह है कि शाक्यादि अन्यतीर्थी दीक्षित होते हैं उस समय भी वे पञ्चमहात्रत अंगीकार नहीं करते । वे सर्वथा हिंसा
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