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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पञ्चम अध्ययन तृतीयोदेशक ] [ ३७७ नहीं करने की प्रतिज्ञा नहीं लेते श्रतएव उस समय भी वे उत्थित नहीं हैं। दीक्षा के समय भी वे सावद्य अनुष्ठान का पूर्ण रूपेण त्याग करने की प्रतिज्ञा नहीं करते अतएव सावद्य अनुष्ठान होने की वजह से वे गृहस्थों के समान ही पूर्वोत्थित नहीं हैं। केवल साधु का वेष धारण करने से उत्थित नहीं कहा जा सकता । श्रस्रवद्वार उन कहलाने वाले साधुओं में तथा गृहस्थों में समानरूप से चालू हैं अतएव वे इसी भंग में समझे गये हैं । उदायी राजा को मारने वाले नापित ने कपट भाव से साधुवेष धारण किया था इससे वह उत्थित नहीं कहा जा सकता इसी तरह ये शाक्यादि भी द्वेष के धारक हैं; इनके सावद्य अनुष्ठान चालू हैं अतएव ये गृहस्थ तुल्य समझे गये हैं । उपरोक्त चतुर्भंगी से यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस त्याग में आन्तरिक बल, श्रद्धा और स्फूर्तिमय धीरता होती है वही त्याग सांगोपांग टिक सकता है। ऐसे समभपूर्वक किये हुए त्याग से ही इष्ट सिद्धि हो सकती है। साधकों को प्रथम भी सिंह के समान संसार से निष्क्रमण करना चाहिए और पश्चात् भी सिंह की तरह ही दृढ़ता से यावज्जीवन संयम का पालन करना चाहिए । यह कथन तीर्थंकर देवों ने अपने केवलज्ञान द्वारा जानकर कहा है । अतएव तीर्थंकरों के वचनों पर अविचल श्रद्धा रखते हुए सिंह के समान वीर एवं धीर बनकर संयम की धाराधना करनी चाहिए । इह प्राणाखी पंडिe प्रणिहे, पुव्वावररायं जयमाणे, सया सीलं सुपेहाए सुणिया भवे प्रकामे | संस्कृतच्छाया – इह आज्ञाकांक्षी पण्डितोऽस्निहः पूर्वापररात्रं यतमानः सदा शीलं सम्प्रेक्ष्य, सुश्रुत्वा भवेकामः अञ्झः । - इह - इस जै शब्दार्थशासन में । आणाखी - तीर्थंकर की आज्ञा का आराधक होने की इच्छा रखने वाला । पंडिए - सदसद् का विवेक करने वाला | अणिहे = श्रासक्ति रहित साधक । पुव्वावररायं = रात्रि के पहले और पिछले प्रहर में । जयमाणे = यतनाशील उपयोगमय होकर । सया = हमेशा । सीलं शील को । सुपेहाए - मोक्षाङ्ग समझ कर उसका पालन करे । सुणिया = शील के लाभ और दुश्शील के परिणाम को सुनकर | अकामे = वासनारहित । अभे= लालसारहित । भवे = होना चाहिए । 1 I भावार्थ - तीर्थंकर देव की आज्ञा का आराधक होने की इच्छा रखने वाले, आसक्तिरहित विवेकी साधक को रात्रि के प्रथम और अन्तिम प्रहर में उपयोगपूर्वक ( मन वचन एवं काया की एक रूपता सहित ) हमेशा शील ( चारित्र ) के लाभों को विचार कर उसका यथार्थ रीति से पालन करना चाहिए । सदाचार से लाभ और सदाचार के न पालने से होने वाली हानियों को सुनकर वासना और लालसारहित होना चाहिए । For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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