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________________ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पश्चम अध्ययन तृतीयोद्देशक ] [ ३७५ शब्दार्थ-जे-जो। पुवुट्ठाई=पहले त्याग ग्रहण करते हैं और । नो पच्छानिवाई= पश्चात् भी पतित नहीं होते हैं। जे–जो । पुव्वुहाई-पहिले त्याग ग्रहण करते हैं और । पच्छानिवाइबाद में पतित हो जाते हैं । जे-जो । नो पुव्वुट्टायी-न तो पहिले त्याग ग्रहण करते हैं। नो पच्छानिवाइ और न बाद में गिरते हैं । जे जो । लोगं लोक को। परिज्ञाय जानकर, छोड कर । लोग=पुनः लोक की। अन्नेसयंति इच्छा करते हैं । से विवह भी । तारिसिए ऐसे ही गृहस्थ तुल्य । सिया है। एयं-यह । नियाय केवलज्ञान द्वारा जानकर । मुणिणातीर्थङ्कर देव द्वारा । पवेइयं कहा गया है। भावार्थ-कितने ही व्यक्ति सिंह के समान प्रथम त्याग मार्ग अंगीकार करते हैं और उसी तरह अन्त तक पालते हैं—पतित नहीं होते है; कितने ही व्यक्ति प्रथम तो त्याग अंगीकार करते हैं और बाद में पतित हो जाते हैं। कितने ही प्रथम मी त्याग मार्ग अंगीकार नहीं करते हैं और पश्चात् पतित भी नहीं होते हैं। जो व्यक्ति संसार के पदार्थों को झ-परिज्ञा द्वारा जानकर प्रत्याख्यान-परिज्ञा द्वारा त्यागते हैं और पुनः उनकी इच्छा करते हैं वे भी गृहस्थ समान ही हैं यह केवलज्ञान द्वारा जानकर तीर्थकर देवों ने प्रवेदित किया है। विवेचन-पूर्ववर्ती सूत्र में पदार्थ-त्याग का निरूपण किया है। अब इस सूत्र में साधकों की योग्यता एवं विकास की तरतमता बताते हैं । संसार के प्राणियों के कर्म भिन्न भिन्न होते हैं अतएव उनका विकास भी भिन्न भिन्न है । प्रत्येक प्राणी की योग्यता और कार्य-शक्ति पृथक् पृथक् होती है। अतएव उनके प्रत्येक कार्य में तरतमता होती है । विकास की असंख्य श्रेणियाँ हैं इसीके अनुसार साधकों की भी उतनी ही श्रेणियाँ हो जाती हैं । तदपि वर्गीकरण के सिद्धान्त के अनुसार यहाँ चतुर्भङ्गी बताई गई हैं। यह चौभंगी इस प्रकार है: (१) पूर्वोत्थायी नो पश्चान्निपाती। (२) पूर्वोत्थायी पश्चान्निपाती। (३) नो पूर्वोत्थायी पश्चान्निपाती। (४) नो पूर्वोत्थायी नो पश्चान्निपाती। प्रथम भंग का अर्थ यह है कि कितने ही साधक संसार की असारता को जानकर धर्म की धाराधना करने के लिए चारित्रमार्ग अङ्गीकार करते हैं और उसे यावज्जीवन यथावत् पालते हैं । वे सिंह के समान ही संसार से निष्क्रमण करते हैं और सिंह के समान ही दृढ़ता से संयम का पालन करते हैं । वे प्रबल भावना से प्रेरित होकर ही चारित्र स्वीकार करते हैं और तदनन्तर भी श्रद्धा संवेगादि द्वारा वर्धमान परिणाम रखते हुए जीवन पर्यन्त प्रबल भावना से ही यथावत् पालन करते हैं । इस भंग में गणधरादि का समावेश होता है । यह त्याग समझपूर्वक और सहज होता है। द्वितीय भङ्ग का अर्थ यह है कि कोई कोई साधक प्रथम तो उज्ज्वल परिणामों से दीक्षा अङ्गीकार करते हैं लेकिन पश्चात् वे कर्म की परिणति से हीयमान परिणाम वाले होकर साधना से गिर जाते हैं । वे For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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