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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ८] [प्राचाराङ्ग-सूत्रम् 'तेणं' ( तेन ) पद से सूत्रकार भगवान् के विशेषणों का सूचन करते हैं । अर्थात् “मैंने उन भगवान् से यह सुना है जिन्होंने राग-द्वेष आदि दोषों का समूल उन्मूलन कर दिया है, जो वीतराग हैं, जिन्होंने लोकालोक को हस्तामलक की तरह देख सकने वाला केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन प्राप्त किया है। इन सब गुणों के कारण जो यथार्थवक्ता और प्राप्तमुख्य हैं उन भगवान् से मैंने यह सुना" यह ध्वनित होता है। 'भगवया' पद से भगवान् के अष्ट महाप्रातिहार्य का सूचन किया गया है । 'भग' शब्द के निम्न अर्थ अभिप्रेत हैं: ऐश्वर्यस्य समग्रस्य रूपस्य यशसः श्रियः । धर्मस्याथ प्रयत्नस्य पराणां भग' इतीङ्गना ॥ अर्थात्-ऐश्वर्य, रूप, यश, श्री, धर्म और प्रयत्न-ये छः भग के अर्थ हैं । इन से युक्त को भगवान् कहते हैं। भगवान् वर्द्धमान स्वामी ६४ इन्द्रों के द्वारा पूजनीय थे आठ महा प्रातिहार्य के द्वारा इन्द्र उनकी भक्ति करते थे; उनके ऐश्वर्य का क्या कहना ? देवताओं का रूप भी जिनके रूप के सामने पानी भरता था उन भगवान् के अलौकिक रूप की कैसी अनुपमता ? राग, द्वेष, परीषह और उपसर्गों को अपने अतुल पराक्रम से पराजित कर देने के कारण त्रलोक्य में व्याप्त होने वाली भगवान् की दिव्य यशोराशि की कैसी उज्ज्वलता! घातिकर्मों का क्षय कर देने से प्राप्त होने वाली केवलज्ञान रूपी श्री की कैसी सुषमा ! दान, शील, तप और भावनामय कैसा अद्वितीय उनका धर्म ! समुद्धात अथवा शैलेशी अवस्था में प्रकट होने वाला कैसा प्रबल प्रयत्न ! इन सब गुणों के कारण वर्द्धमान स्वामी को भगवान् कहा है। सूत्रकार ने उक्त विशेषण युक्त भगवान् का वर्णन करके उनके प्रति अपार भक्ति का प्रदर्शन किया है । भक्तिपूर्वक ग्रहण किया हुआ शान ही सफल होता है, यह भी इससे स्पष्ट हो जाता है। कहीं कहीं 'पाउसंतेण' को एक पद मान कर इसका अर्थ 'आयुष्मता' अर्थात् 'आयुष्मान् भगवान् ने ऐसा कहा है' यह भी किया है। कहीं इस पद का अर्थ 'श्रामृशता भगवत्पादारविन्द अर्थात् भगवान् के चरण-कमलों को भक्तिपूर्वक स्पर्श करते हुए' करके इस पद को 'मे' का विशेषण माना है। इससे गुरु भक्ति का कितना सुन्दर बोध मिलता है। श्री सुधर्मस्वामी स्वयं चतुदश पूर्वो के धारक थे तदपि वे अपने गुरु की कैसी भक्ति करते थे। इससे प्रकट होता है कि चाहे, जितना ज्ञान प्राप्त हो जाने पर भी गुरु की भक्ति कदापि नहीं छोड़नी चाहिए। कहीं इस पद के. स्थान पर 'आवसंतेण' पाठ मिलता है। इसका अर्थ है कि गुरु के समीप रहते हुए मैंने यह सुना है। इससे 'वसे गुरुकुले णिच' (नित्य गुरु के समीप-उनकी सेवा में रहना चाहिए। ) की शिक्षा मिलती है। वही साधक सच्चा ज्ञान प्राप्त कर सकता है जो गुरु की हृदय से सेवा करता हो। 'अक्खाय' ( कहा ) इस पद से अर्थरूप से आगमों की नित्यता का कथन किया गया है। अर्थात् यह आगम भगवान् वर्द्धमान स्वामी द्वारा कहे गये हैं, न कि रचे गये हैं। इस प्रकार कृतकत्व का निषेध करके आगमों की अर्थापेक्षया नित्यता प्रतिपादित की है । अतीतकाल में हुए For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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