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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३६८ ] [ आचाराङ्ग-सूत्रम् निरासक्ति के रूप में प्रकट होना चाहिए । निरासक्ति के ध्येय के बिना जो साधक धन कुटुम्बादि का त्याग भी करता है वह एक को छोड़कर दूसरी तरह के परिग्रह में फँस जाता है। अपरिग्रह वृत्ति में ही साधुता है । जहाँ परिग्रह वृत्ति है वहाँ गृहस्थता है। त्यागी का वेश धारण करके भी जो परिग्रही हैं वे गृहस्थ तुल्य ही हैं । परिग्रह-वृत्ति और विषय लालसा अधमगति के कारण । साथ हैं ही आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा की उत्कटता ( तीव्रता ) महाभयरूप है । सामान्य रूप से परिग्रह के अन्दर चारों संज्ञा का अन्तर्भाव किया जा सकता है क्योंकि वे भी परिग्रहरूप ही है । तात्पर्य यह है कि परिग्रह अधमगति का एवं संसार का कारण है अतएव मुमुक्षु साधक सच्चा सुख प्राप्त करने के लिए परिग्रह से सर्वथा दूर रहे | परिग्रह-वृत्ति से निर्भयता नहीं आ सकती और ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की सार्थकता नहीं हो पाती । जो साधक परिग्रह से मुक्त है वही चारित्रवान् है वही सच्चा ज्ञानी और दर्शनी है। निष्परिग्रहत्व से ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की पूर्णता होती है अतएव वही मुनि रत्नत्रय का सम्यक् आराधक है जो परिग्रह से मुक्त हो । सूत्रकार अपरिग्रह का फल बताते हुए फरमाते हैं कि बाह्यदृष्टि को त्याग कर दिव्यदृष्टि से अवलोकन करो और समझो कि दिव्यदृष्टिसम्पन्न - आत्माभिमुख साधक को ही ब्रह्म की प्राप्ति होती है । ब्रह्मप्राप्ति, आत्मा प्राप्ति, मुक्ति या निर्वाण जो साधक का अन्तिम ध्येय है वह इसी मार्ग से साध्य है । परिग्रह-विरति एवं दिव्य - श्रात्मदृष्टि वाले साधक ही ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की परिपूर्ण साधना कर सकते हैं । वे ही निर्वाण के अधिकारी हैं । सकता " से सुयं च मे श्रज्झत्थयं च मे बंधपमुक्खो अज्झत्थेव इत्थ विरए गारे दीहरायं तितिक्खए, पमत्ते बहिया पास, अप्पमत्तो परिव्वए, एवं मोणं सम्मं श्रणुवासिज्जासि त्ति बेमि । संस्कृतच्छाया—तच्छ्रुतं च मया अध्यात्मं च मया बन्धप्रमोक्षः अध्यात्मन्येव । अत्र विरतोSनगारः दीर्घरात्रं तितिक्षेत्, प्रमत्तान् बहिर् पश्य श्रप्रमत्तः परिव्रजेत्, एतद् मौनं सम्यगनुवासयेः इति ब्रवीमि । शब्दार्थ — से- यह । सुयं च मे मैंने सुना है। अज्झत्थयं च मे=मैंने आत्मा में अनुभव किया है कि । बंधपमुक्खो बन्धन से छुटकारा | अज्झत्थेव = अपनी आत्मा से ही होता है । इत्थ=इस परिग्रह से | व़िरए = रहित । अणगारे अनगार-साधु । दीहरायं = यावज्जीवन परिषह एवं उपसर्गों को । तितिक्खए - सहन करे । पमत्ते = प्रमादियों को । बहिया = धर्म से विमुख | पास= देख और | अप्पमत्तो = श्रप्रमत्त होकर । परिव्वए - संयम में विचरण करे । एयं मोणं इस तीर्थंकर भाषित संयमानुष्ठान का । सम्म = भलीभांति । अणुवासिजासि = पालन करे । त्ति बेमि= ऐसा मैं कहता हूँ । 1 भावार्थ - हे प्रिय जम्बू ! यह मैंने भगवान् से साक्षात् सुना है और आत्मा में अनुभव किया है कि " बन्धन से मुक्त होना " यह कार्य आत्मा से ही हो सकता है इसलिए साधक परिग्रह से मुक्त For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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