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पञ्चम अध्ययन द्वितीयोद्देशफ ]
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होकर साधना के मार्ग में आने वाले क्षुधा आदि परिषहों एवं संकटों को समभाव से सहन करे। प्रमादी जीवों को धर्म से पराङ्मुख समझ और स्वयं अप्रमत्त होकर संयम में पराक्रम करे। तीर्थंकरभाषित इस संयमानुष्ठान का यथार्थ रीति से पालन कर ऐसा मैं कहता हूँ।
विवेचन-इसके पहिले के सूत्र में ब्रह्म-आत्मप्राप्ति की बात कही गई है। प्रकृत सूत्र में यह बताया गया है कि आत्मप्राप्ति या मोक्षप्राप्ति बाहर से आने वाली नहीं है यह तो अपने आप में से प्रकट होगी । जो साधक ब्रह्म को-आत्मा को, ईश्वर को एवं निर्वाण को बाहर ढूंढते हैं वे निराश होते हैं । सचमुच यह अवस्था आत्मा की निजी अवस्था है और यह अन्दर से ही प्रकट हो सकती है । इसके लिए बाह्यदृष्टि का त्याग और अन्तर्दृष्टि की आवश्यकता रहती है।
___कस्तूरी मृग की तरह जो साधक सुख को बाहर खोजने का निरर्थक परिश्रम करता है वह सदा निराश एवं असफल ही रहेगा । जो वस्तु जहाँ नहीं है उसे वहाँ ढूंढने के लिए चाहे जितने प्रयास कर लिए जायें वह कदापि उस स्थल पर नहीं मिल सकती । इसी तरह जो सुख आत्मा में ही भरा है, जिस सुख का उद्गम स्थान आत्मा ही है वह सुख आत्मा के अतिरिक्त अन्यत्र कहाँ मिल सकता है ? कहीं नहीं। अतएव बाह्यदृष्टि को छोड़ने और दिव्य अन्तर्दृष्टि से अवलोकन करने के लिए सूत्रकार ने फरमाया है।
संसार में देखा जाता है कि कृत्रिम धर्म के ठेकेदार रिश्वत लेकर स्वर्ग और मोक्ष के परवाने देते हैं और भोले प्राणी उनके परवाने और चिट्टियों को प्राप्त कर लेते हैं और समझते हैं कि हमें स्वर्ग और मोक्ष में जाने का अधिकार हो गया। लेकिन यह उनकी अज्ञानता है। जिन परवाने देने वालों के जीवन हिंसक एवं कलुषित हैं वे बेचारे स्वयं मोक्ष को नहीं जानते । ऐसे अज्ञानियों के परवाने से मोक्ष कैसे हो सकता है ? उनके परवाने की क्या कीमत हो सकती है ? एक रद्दी कागज के टुकड़े से अधिक उन परवानों का कोई महत्व नहीं । मुक्ति और स्वर्ग की चिट्ठी दे देने की शक्ति किसी अन्य में नहीं है । आप्त पुरुष, सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी पुरुष ऐसा कहते हैं कि यह मार्ग निष्कंटक है। इस मार्ग पर चल कर हमने सुख एवं शान्ति प्राप्त की है। ऐसा कह देने के बाद उस मार्ग पर चलने या न चलने का काम तो साधक के स्वयं के हाथ में है । अगर वह उनके बताये हुए मार्ग पर चलता है तो कोई शक्ति उसे नहीं रोक सकती। वह अपने पुरुषार्थ से अपना साध्य सिद्ध कर लेता है।
बन्धन से छुटकारा पाना अपने आपके प्रयत्न से ही हो सकता है यह जानकर साधक संयम में अप्रमत्त होकर पराक्रम करे। इस मार्ग में आने वाले संकटों को समभाव से सहन करे । संकटों को दुख मानना अज्ञानता है । आत्माभिमुख बन कर सतत जागृत रहना चाहिए । जागृति-उपयोगमय जीवन ही धर्म है। उपयोग से शन्य जीवन बाह्य धार्मिक क्रियाओं के करने पर भी पापमय है। यह जानकर तीर्थंकर भाषित संयम के अनुष्ठान में साधक को सावधान रहना चाहिए।
इति द्वितीयोद्देशकः
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