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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पञ्चम अध्ययन द्वितीयोदशक ] [ ३६७ वह बड़े-बड़े साहस इसी के लिए करता है । देशविदेशों में भ्रमण करता है, समु यात्रा करता है, पर्षसों को लाँघता है एवं प्राण हथेली में लेकर भी धनादि के लिए प्रयत्न करता है। वह सदा परिग्रह के जाल में पड़ा हुआ आकुल-व्याकुल रहता है । यद्यपि लाख प्रयत्नों के बाद भी उसे उतना ही मिलता है जितना लाभान्तराब का क्षयोपशम होता है तदपि वह संतोष एवं साता से लाखों कोस दूर रहता है । आशाओं का कहीं पर अन्त नहीं होता । प्राप्त वस्तुओं में उसे संतोष नहीं मिलता। पर इन सब पदार्थों का अन्त में क्या परिणाम है ? ये पदार्थ क्या अन्तकाल तक सुख देंगे? क्या कोई द्विपद-खी, पुत्र, मित्र, दासदामी इत्यादि किसी के साथ अन्त समय में जाते हैं ? क्या हाथी, घोड़े, गाय, बैल आदि चौपद साथ जाते हैं ? क्या आजीवन उपार्जित धनराशि में से कुछ भाग उसका साथ देता हैं ? कुछ भी नहीं। सभी पदार्थ यही धरे रह जाते हैं। आत्मा के साथ न कोई आया हैं और न कोई जायगा । यह जीव इस बात को जानता है फिर भी मोह की प्रबलता के कारण उसे प्रतीति नहीं होती। मोह की मदिरा सचमुच अद्भुत है। इसके प्रभाव से जीव सत् असत् का भान अनादिकाल से भूला हुआ है । यह तो हुई सामान्य पुरुषों की बात । लेकिन कई त्यागी नाम धराने वाले भी परिग्रह के बन्धन से मुक्त नहीं है। सूत्रकार ने स्पष्ट फरमाया है कि जहाँ परिग्रह है वहाँ साधुता नहीं है। परिग्रह चाहे अल्प-कोड़ी का भी हो, चाहे धन-धान्य हिरण्यादि का हो, चाहे वह अणु-सूक्ष्म हो अथवा स्थूल हो, (अणु दो प्रकार से हो सकता है-मूल्य से और प्रमाण से । मूल्य से अणु, तृण, काष्ठादि और प्रमाण से अणु वज्रमणि आदि । स्थूल भी दो प्रकार का-मुल्य से और प्रमाण से । मूल्य से और प्रमाण से उभयत: हाथी घोड़े आदि ) पुत्र, स्त्री, दास दासी आदि सचित्त हो अथवा आभूषण मकान आदि हो-सभी तरह का-परिग्रह महाभय का कारण है। परिग्रह से नरकादि गति होती है और वहाँ दुख होता है, वह भयरूप है अतएव परिग्रह को कार्यकारण के अभेदोपचार से महाभय रूप कहा गया है। यहाँ यह आशंका की जा सकती है कि परिग्रह मात्र भयरूप है तो साधु मुनिराज भी संयम के उपकरण रखते हैं, क्या वे भी परिग्रही हैं ? उनका संयम के उपकरण रखना भी भयरूप है ? अगर उनका उपकरण रखना भी परिग्रह है तो वे अपरिग्रही कैसे कहे जाते है ? इसका समाधान यह है कि परिग्रह का अर्थ पदार्थ रखना नहीं लेकिन पदार्थों पर मूर्छा-ममता रखना है । शास्त्रकार ने मुर्छा को परिग्रह माना 'है। कहा भी है-"मुच्छा परिग्गहो वुत्तो नायपुत्तेणं ताइणी"अर्थात्-शातपुत्र भगवान महावीर ने मूछो को परिग्रह कहा है। संयमी अपने संयम के उपकरणों में मूर्छा नहीं रखता अतएव धर्मोपकरण-धर्मसहायक होने से-परिग्रह के अन्तर्गत नहीं हैं। संयमी साधक अपने शरीर में भी ममत्व नहीं करते तो : पकरणों में 'ममत्व कैसे कर सकते हैं ? परिग्रह का सम्बन्ध पदार्थ के त्याग या पदार्थ के रखने से नहीं है परन्तु प्रासक्ति-सूर्छा के त्याग एवं आसक्ति पर निर्भर है । एक व्यक्ति पदार्थों के बीच में रहता हुया भी अपनी अनासक्ति के कारण अपरिग्रही कहा जा सकता है और एक व्यक्ति बाह्य पदाथों को छोड़े हुए हैं लेकिन उसके हृदय में पदार्थों के प्रति आसक्ति है तो वह परिग्रंही कहा जाता है। बाह्य पदार्थों का त्याग तो अनासक्ति को विकसित करने का एक सीधा सा उपाय है । जो पदार्थ त्याग अनासक्ति को नहीं जन्म देता यह त्याग, त्याग नहीं कहा जा सकता । कई त्यागी नामधारी साधु बाह्य पदार्थों का त्याग तो कर देते हैं लेकिन उनके हृदय में उन पदार्थों के प्रति आकर्षण बना रहता है । वह परिग्रह के अन्तर्गत है। त्यागी का वेशमात्र पहनने से त्याग नहीं हो जाता या पदार्थों के छोड़ देने मात्र से त्याग नहीं आ जाता। स्याग तो निरासक्ति और निर्ममता से होता है। इसका अर्थ यह नहीं कि वेष का और पदार्थ त्याग का कोई महत्त्व नहीं है। निरासक्ति को प्रकट करने के लिए इनकी आवश्यकता है परन्तु इनका परिणाम For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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