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३६६ ]
[आचाराग-सूत्रम्
एतान् संगानविजानतः तस्य सुप्रतिबद्धं सूपनतिमिति ज्ञात्वा पुरुष ! परमचक्षुः विपराक्रमस्व, एतेषु चैव ब्रह्मचर्यमिति ब्रवीमि ।
शब्दार्थ-श्रावती जितने । केयावंती-कितनेक । लोगंसि लोक में । परिग्गहावंती= परिग्रह रखने वाले हैं। से-वह परिग्रह चाहे। अप्पं अल्प हो । वा अथवा । बहुं वा=बहुत हो। अणुवा सूक्ष्म हो अथवा । थूलं वा-स्थल हो । चित्तमंतं वा-सचित्त हो अथवा । अचित्तमंतं वा अचित्त हो । परिग्गहावंती ने परिग्रहधारी । एएसु चेव गृहस्थों के समान ही है। एयमेव-यह परिग्रह । एगेसि किन्हीं प्राणियों के लिए । महब्भयं-महान् भय का कारण । मषद होता है । लोगवित्तं च णं आहारादि लोक संज्ञा को। उहाए भयरूप जानकर छोड़ना चाहिए । एए-इन । संगे-द्रव्यभाव परिग्रह को । अवियाणो नहीं करने वाले । से= उस साधक का । सुपडिबद्धं चारित्र सुदृढ़ है । सूवणीयं-ज्ञानादिगुण अच्छी तरह प्राप्त हुए हैं। ति-ऐसा । नचा=जानकर । पुरिसा हे पुरुषो। परमचक्खू-दिव्य दृष्टि रखकर । विपरिकमा संयम में पराक्रम करो। एएसु चेव अपरिग्रही व दिव्यदृष्टि वाले साधकों को ही । बंभचेरं= ब्रह्मचर्य आत्मा की प्राप्ति होती है । त्ति बेमि=ऐसा मैं कहता हूँ।
भावार्थ- इस संसार में साधुवेश धारण करके भी कितनेक व्यक्ति थोड़ा या ज्यादा, छोटा या मोटा, सचित्त या अचित्त परिग्रह रखते हैं। वे साधु कहलाने पर भी गृहस्थों के समान ही हैं। यह परिग्रह कई जीवों को अधमगति में दुखरूप महा भय का कारण बनता है अथवा आहार, भय, मैथुन
और परिग्रह रूप लोकसंज्ञा को भी भयरूप जानकर उससे दूर रहना चाहिए । जो साधक परिग्रह से व लोकसज्ञा से दूर हैं उनकी साधना सच्ची है-उनको ज्ञाना दिगुणों की प्राप्ति होती है । यह जानकर दिव्य दृष्टि धारण करो और वीर के मार्ग-संयम-में पराक्रम करो । क्योंकि अपरिग्रही दिव्यदृष्टि वाले साधक को ही ब्रह्म-आत्मा की प्राप्ति हो सकती है ।
विवेचन-पहिले के सूत्र में कहा गया है कि सुख देने का स्वभाव आत्मा का है; बाह्य पदार्थों में सुख देने की शक्ति नहीं है। ऐसा होने पर भी मूढ़ प्राणी बाह्य वस्तुओं में सुख की मिथ्या कल्पना करके परिग्रह रखते हैं। यह परिग्रह महा भयरूप है यह प्रस्तुत सूत्र में कहा गया है। परिग्रह आत्मा को बांधने वाला एक भयंकर बन्धन है। इस बन्धन से बँधा हुआ प्राणी नरकादि अधम गतियों में जाता हैं
और वहाँ भयंकर से भयंकर यातनाओं को भोगता है अतएव यह महा भयरूप कहा जाता है । ऐसा होते हुए भी संसारी प्राणियों के मोह की कैसी विडम्बना है कि वे भयरूप वस्तु को ही अज्ञान से शरणरूप मान बैठे हैं । मोह का मारा हुश्रा प्राणी दिन-रात धन जुटाने में लगा रहता है । येन केन प्रकारेण अधिक से अधिक द्रव्य- सञ्चय करना ही उसका ध्येय हो जाता है । वह धर्म-कर्म को खूटी पर रख देता है और धनादि परिग्रह के लिए हिंसा, झूठ, चोरी एवं कपट जाल करता है । भयंकर से भयंकर कर्म करता हुआ भी नहीं सँकुचाता है । युद्ध लड़ना, डाका डालना, सट्टा एवं जूआ खेलना इसके लिए मामूली काम है।
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