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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पञ्चम अध्ययन द्वितीयोद्देशक ] [३६१ देह स्वरूप को देखने वाले । इक्काययणरयस्स आत्मा के गुणों में रमण करने वाले । इह विप्पमुक्कस्स-शरीरादि में निरासक्त। विरयस्स-त्यागी साधक को। मग्गे नस्थि-संसार में परिभ्रमण का मार्ग नहीं रहता। भावार्थ-जो साधक पापकर्म में प्रवृत्त नहीं है तो भी कदाचित् पूर्वकर्मों के उदय से कोई व्याधि या उपाधि आवे तो उसे शान्ति के साथ सहन करे ऐसा धीर-वीर तीर्थंकर देवों ने फरमाया है। साथ ही ऐसा विचार करना चाहिए कि यह मेरे कर्मों का उदय है अतएव आगे या पीछे मुझे यह दुख सहन करना ही है । यह औदारिक शरीर आगे या पीछे अवश्य छिन्न-भिन्न होने वाला है, विध्वंसन स्वभाव वाला है, अध्रुव, अनित्य, अशाश्वत, बढ़ने-घटने वाला और विनश्वर है । हे साधको ! इस शरीर के स्वरूप का और प्राप्त सुअवसर का पुनः पुनः विचार करो । जो साधक देह के स्वरूप का दृष्टा और अवसर का विचारक है, जो आत्मा के गुणों में रमण करने वाला है, जो शरीरादि में निरासक्त और त्यागी है उसके लिए संसार में भटकने का मार्ग नहीं है। विवेचन-पूर्व के सूत्र में संयम के मार्ग में आने वाले कष्टों को समभाव से सहन करने का कहा गया है। इसी बात को इस सूत्र में विशेष स्पष्ट रूप से कहा गया है। जो साधक कामभोग से सर्वथा अलिप्त हैं और तृण तथा मणि में जिसका समभाव है एवं जो पापकर्मों में रत नहीं है ऐसे साधकों को भी पूर्वकृत अशुभ कर्मों का उदय होने से रोग पीड़ित करते हैं। उन्हें भी जीवन का अन्त करने वाली शूलादि व्याधियाँ सताती हैं। ऐसे प्रसंगों पर भी साधकों को उन व्याधियों का समभाव से वेदन करना चाहिए ऐसा तीर्थक्कर देवों का फरमान है। ऐसे प्रसंगों पर साधकों को यह विचारना चाहिए कि की कर्मों की शृङ्खला अविच्छिन्न रूप से चलती आती है। संसारी जीवों के लिए यह शृङ्खला त्रिकालाबाधित है । अर्थात् जब तक मोक्ष न प्राप्त हो वहाँ तक भूत, वर्तमान और भावी जन्मों में कर्म की शृङ्खला बराबर बनी रहती है। पुनर्जन्मों के कारण इस कर्मशृङ्खला पर आवरण पड़ जाता है इसलिए पिछले कर्मों का इस जीव को भान नहीं होता और जब वे कर्म अपना परिणाम बताते हैं तब यह प्राणी एकदम चौंक पड़ता है एवं निराश हो जाता है । परन्तु जिस व्यक्ति को कर्म के अखण्ड नियमों का भान होता है वह आकस्मिक रोग एवं संकटों से नहीं चौंकता है। वह इन्हें अपने ही कर्मों का फल समझता है और समभाव से वेदन करता है। इस सूत्र में सूत्रकार ने इस आशंका का समाधान किया है कि जीव इस जन्म में धर्म का आचरण करते हैं और धर्म सुख का कारण है ऐसा भी कहा जाता है लेकिन फिर भी धर्मात्मा संसार में दुखी देखे जाते हैं और जो धर्म-कर्म में नहीं समझते हैं और पाप अनुष्ठान करते हैं वे सुखी देखे जाते हैं । इसलिए यह कैसे माना जाय कि धर्म सुख का और पाप दुख का कारण है ? सूत्रकार ने इस आशंका का यों समाधान किया है कि धर्म, सुख का और पाप दुख का कारण है इसमें कोई अपवाद नहीं हो सकता। यह नियम स्वयंसिद्ध है। जो ऊपर आशंका की गई है वह पूर्वकर्म के स्वरूप को न समझने के कारण ही की गई है। अगर पूर्वकृत कर्म के स्वरूप को समझ लिया जाय तो यह शंका नहीं रहती। प्राणी इस वर्तमान भव में धर्माचरण करता है इसका परिणाम शुभ ही होता है । हो सकता है कि यह शुभ परिणाम इस भव में न दिखाई दे और आगे के भव में फल हो । इसी तरह वह धर्मात्मा व्यक्ति इस भव में दुखी दिखाई देता है यह उसके पूर्वजन्मों में किए हुए अशुभकों का फल है। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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