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Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३६२ ]
[भाचाराग-सूत्रम् जो पापी अभी सुखी दिखाई देते हैं वह उनके पूर्वजन्म के सुकृत का परिणाम है। इस भव में किए जाने वाले अशुभकों का फल इस भव में भी मिल सकता है और आगे के भवों में भी मिल सकता है । यह तो निश्चित और स्वयंसिद्ध सिद्धान्त है कि क्रिया का फल कर्ता को आगे या पीछे, इच्छा से या अनिच्छा से अवश्य ही प्राप्त होता है। कोई भी क्रिया कदापि निष्फल नहीं होती। क्रिया का फल चाहे साक्षात् मिले चाहे परोक्ष में मिले, फल अवश्य ही मिलता है । इसलिए प्रत्येक क्रिया को करते हुए उसके शुभाशुभ परिणाम को अवश्य विचार लेना चाहिए। कई प्राणियों को अपनी वर्तमानकाल की क्रियाओं की अच्छाई-बुराई का भी भान नहीं होता ऐसे प्राणियों को भूत और भविष्य के जन्मों की क्रियाओं के फल का भान न हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है । प्राणी को भान हो अथवा न हो कर्म का सिद्धान्त तो अपना कार्य व्यवस्थितरूप से चलाता रहता है । वह सामान्य प्राणी से लगाकर देवाधिदेव तीर्थक्कर को भी पूर्वकृत कर्म का फल देने में नहीं चूकता। जिन्हें चार घनघाति कर्मों के क्षय होने से केवलज्ञान उत्पन्न हो गया है उनके भी असाता वेदनीय का उदय सम्भव है। जैनधर्म में कर्म की मीमांसा अत्यन्त सूक्ष्म रूप से की गई है । श्रात्मा को अपने सहज स्वभाव से विकृति की ओर खींचने वाला कर्म ही है । अतएव कर्म की व्याख्या, कर्म का बन्ध और कर्म का मोक्ष इन सभी का इस दर्शन में बड़ी सूक्ष्मता और गहनता से विवेचन किया गया है । कर्मों का बन्ध चार तरह का माना गया है-प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध ।
प्रकृतिबंध-जैसे किसी मोदक का स्वभाव पित्तनाशक, किसी का वातनाशक, किसी का कफनाशक होता है उसी तरह किसी कर्म का स्वभाव आत्मा के ज्ञान गुण को, किसी का दर्शनगुण को आवरण करने का होता है। कर्म के इस विभिन्न स्वभाव को प्रकृतिबंध कहते हैं । इसके मूल भेद पाठ हैं(१) ज्ञानावरणीय (२) दर्शनावरणीय (३) वेदनीय (४) मोहनीय (५) आयुष्य (६) नाम (७) गोत्र (८) अन्तराय । इनकी १४८ या १५८ उत्तर प्रकृतियां है ।
स्थितिबंध-जैसे कोई मोदक १५ दिन तक टिकता है, कोई मास भर तक टिक सकता है और कोई वर्ष भर भी रह सकता है । इसी तरह कोई कर्म आत्मा के साथ अन्तमहर्त तक कर्मरूप में रहता है
और कोई कर्म सत्तर कोड़ाक्रोडी सागरोपम तक कर्म पर्याय में बना रहता है । काल की इस मर्यादा को स्थितिबंध कहते हैं।
अनुभागबन्ध-जैसे कोई मोदक अधिक मीठा होता है, कोई थोड़ा मीठा होता है, कोई तिक्त होता है कोई कटु होता है इसी प्रकार ग्रहण किए हुए कर्मों में से कोई कर्म तीव्र फल देता है, कोई मंद फल देता है, किसी का फल तीव्रतर और तीव्रतम होता है जब कि किसी का मन्दतर और मन्दतम होता है। शुभकर्मों का शुभरस होता है और अशुभकर्मों का अशुभग्स होता है । कर्मरस की तीव्रता और मंदत्ता को अनुभागधन्ध कहते हैं।
प्रदेशबन्ध-जैसे कोई मोदक एक छटांक का होता है, कोई आधा पाव का होता है, कोई पाव भर का होता है उसी तरह कोई कर्म-दल कम परिमाण वाला होता है कोई विशेष परिमाण वाला होता है। इस तरह कर्मदल के प्रदेशों की न्यूनाधिकता को प्रदेशबन्ध कहते हैं । प्रदेशबन्ध के चार भेद हैं । स्पष्ट, बद्ध, निधत्त और निकाचित । जो कर्मप्रदेश. श्रात्मा को स्पर्शमात्र करते हैं वे स्पष्ट कहलाते हैं । जिस प्रकार कई सूहयाँ एक-थाली में रख दी जाय तो उनमें जैसा परस्पर सम्बन्ध होता है वैसा आत्मा और कर्मप्रदेश का स्पर्श होना स्पष्ट कर्मबन्ध कहलाता है। डोरे से बंधी हुई सूइयों के सम्बन्ध के समान बद्ध
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