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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३६० ] [ श्राचारान-सूत्रम् संयम की आराधना करते हुए यदि परीषह और उपसर्ग आवें तो साधक सम्यक् प्रकार से उन्हें सहन करे । तनिक भी ग्लानि का अनुभव न करे। सच्चे संयमी को परीषह और उपसर्ग कष्टरूप नहीं प्रतीत होते हैं । संयमी अपनी दृष्टि ऐसी बना लेता है कि उसे परीषह और उपसर्ग बाधक नहीं लगते वरन् साधक लगते हैं । सामान्य प्राणी जिसे दुख समझता है उसे ज्ञानी-संयमी सुख मानता है और सामान्य दुनिया जिसे सुख समझती है उसे वह दुखरूप मानता है । संसारी प्राणी विषयों और धन को सुख मानता और योग साधक इन्हें दुख मानकर ठुकराता है । संयमी परीषहों को आत्मबल की कसौटी समझता बड़ी शान्ति के साथ उन्हें सहन करता है । वह संसार के प्राणियों के दुखों का विचार करता है । वह भ्रमण का चिन्तन करता है और सोचता है कि नरकादिस्थानों की बात छोड़कर यदि मनुष्य लोक को ही देखें तो मालूम हो जाता है कि मनुष्य कैसे २ और कितने दुखों को सहन करते हैं । वह संसार की और पुद्गलों की असारता का चिन्तन करता है और अपने दुखों की उनके दुखों से तुलना करता है । उसे स्पष्ट प्रतीत होता है कि मुझे होने वाले दुखों की अपेक्षा संसारी प्राणियों के दुख बहुत अधिक हैं । वह अपने दुखों को व्याकुलतारहित होकर शान्त मन से सहन करता है मन में कदापि ग्लानि नहीं लाता । वही सच्चा चारित्र सम्पन्न मुनि है । जे सत्ता पावेहिं कम्मेहिं उदाहु ते आायंका फुसंति, इति उदाहु धीरे ते फासे पुट्ठो हियासह, से पुव्विपेयं पच्चापेयं भेउरधम्मं, विद्वंसधम्मम - धुवं श्रणिइयं असासयं चयावचइयं विष्परिणामधम्मं पासह एयं रूवसंधिं समुप्पेहमाणस्स इक्काययणरयस्स इह विष्पमुक्कस्स नत्थि मग्गे विरयस्स त्ति बेमि । संस्कृतच्छाया—ये असक्ता पापेषु कर्मसु कदाचित् तान् श्रातङ्काः स्पृशन्ति इत्युदाहृतवान् धीरः तान् स्पर्शान् स्पृष्टः अध्यासयेत्- - स ( एवं भावयेत् ) पूर्वमपि एतद् ( दुःख मया सोढव्यं ) पश्चादप्येतद्, भिदुरधर्म, विध्वंसनधर्ममध्रुवम नित्यमशाश्वतं चयापचायिकं विपरिणामधर्मं पश्यतैनं रूपसंधिं, समुत्प्रेक्षमाणस्यै कायतनरतस्य इह विप्रमुक्तस्य नास्ति मार्गो विरतस्येति ब्रवीमि । 1 I 1 शब्दार्थ - जे - जो | पावेहिं कम्मेहिं पापकर्मों में । असत्ता = आसक्त नहीं हैं। उदाहु= कदाचित् । ते=उनको । श्रयंका रोग । फुंसंति-स्पर्श करें तो । पुट्ठो रोगों से स्पृष्ट होने पर । ते उन | फासे दुखों को । श्रहियासह = समभाव से सहन करें। इति इस प्रकार से । धीरे= धीर वीर तीर्थङ्करों ने । उदाहु = कहा है । से = वह ऐसा विचारे कि । पुव्विषेयं यह दुख पहिले भी मुझे ही सहन करना है। पच्छापेयं बाद में भी मुझे ही सहन करना है । भिउरधम्मं - यह दारिक शरीर भिदने वाला है । विद्धंसणधम्मं = विध्वंसन स्वभाव वाला है । अधुर्व अध्रुवनियमरहित है | अणिइयं = अनित्य- परिवर्तनवाला । असासयं = अशाश्वत उस उस रूप से नहीं टिकने वाला । चयावचइयं बढ़ने घटने वाला । विप्परिणामधम्मं = नाशवान् है । एयं इस | रूवसंधि - देह के स्वरूप को और अवसर को । पासह - देखो - विचारो । समुप्पेहमाणस्स - इस प्रकार | For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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