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पञ्चम अध्ययन द्वितीयोदेशक ]
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मुनि किसी प्रकार की हिंसा नहीं करता हुआ और मृषावाद नहीं बोलता हुआ संयम के मार्ग में आने वाले कठिन से कठिन संकटों को भी सम्यक् प्रकार से सहन करता है। ऐसा साधक ही चारित्रशील मुनि कहा जाता है |
विवेचन - पूर्ववर्ती सूत्र में अनारम्भी जीवन व्यतीत करते हुए अप्रमत्त होने का उपदेश दिया गया है । इस उपदेश को गणधरों ने प्रथित किया है लेकिन समस्त उपदेश तीर्थङ्करों द्वारा उपदिष्ट है तो भी सूत्रकार ने इस उपदेश का विशेष महत्व समझाने के लिए, इस पर भगवान् तीर्थक्कर देवों की छाप लगाई है। अर्थात् यह उपदेश स्वयं तीर्थंकर देवों का है, किसी सामान्य पुरुष का नहीं । श्रतएव त्रिकाल - दर्शी सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, प्रभु महावीर के इन वचनों पर अविचल श्रद्धा करके तदनुसार अपनी प्रवृत्तियों को आरम्भ और प्रमाद से रहित बनाना चाहिए।
सूत्रकार इस सूत्र में यह बताते हैं कि प्रत्येक प्राणी का सुख-दुख भिन्न भिन्न हैं। सुख और दुख की कल्पनाएँ सब की निराली निराली हैं। एक प्राणी जिस चीज में सुख की अनुभूति करता है दूसरा प्राणी उसी में दुख का अनुभव करता है। एक प्राणी जिस वस्तु के लिए लालायित रहता है दूसरा प्राणी उसे ही त्यागना चाहता है। एक प्राणी के लिए जो चीज बड़े महत्त्व की है वही वस्तु दूसरे के लिए तुच्छ है । उदाहरण के लिए बालकों के लिए खिलौने मनोविनोद की सब से बढ़िया चीज है लेकिन वे ही खिलौने बड़े श्रादमियों की दृष्टि में तुच्छ हैं। इससे तात्पर्य यह निकलता है कि वस्तु के अन्दर सुख दुख रहा हुआ नहीं है। पदार्थों में सुख-दुख होता तो वह सभी को एक समान ही लगते लेकिन ऐसा नहीं होता । sara सिद्ध होता है कि सुख-दुख का आधार बाह्य पदार्थ नहीं लेकिन प्राणी की चित्तवृत्ति है । चित्तवृत्ति में यदि सुख की भावना है तो सुख और दुख की भावना है तो दुख मालूम होने लगता है । यही भावना का वैचित्र्य दुख-सुख की भिन्नता का कारण है। दूसरी बात यह है कि प्राणियों के पूर्वकृत कर्म भिन्न-भिन्न हैं अतएव उनके सुख-दुख भी भिन्न-भिन्न हैं । कारणों की भिन्नता से कार्य भिन्न २ होते ही हैं। बाहर के सुख-दुख भिन्न २ श्राशयों के कारण होते हैं। आशयों की भिन्नता का कारण कर्मों का तारतम्यु है। कर्मों की विविधता और विचित्रता से ही सृष्टि का चक्र चल रहा हैं । प्रत्येक व्यक्ति भिन्न २ श्राकृति और साधन सामग्री रखता है इसका कारण भी प्राणियों के विभिन्न श्राशय हैं। संसार की यह विविधता ही कर्म सिद्धान्त के अविचल नियम और प्राकृतिक शक्ति के अस्तित्व की प्रतीति कराती है । सूत्रकार से कहा है कि प्रत्येक मनुष्य भिन्न २ आशय वाला है । यहाँ मनुष्य पद उपलक्षण है। इससे समस्त प्राणियों का महण होता है। मनुष्य मननशील है श्रतएव उसका मुख्यतः सूत्र में महण किया गया है। जो मुनि प्राणियों के विभिन्न प्रशयों को सममता है वह कदापि विषय कषाय और प्रमाद का सेवन नहीं करता है। जिस व्यक्ति को यह सभी प्रतीति हो जाती है कि जीव अपने किए हुए शुभ या अशुभ कर्मों के फल का भोक्ता है, शुभकर्मों का फल शुभ होता है, अशुभकर्मों का फल अशुभ होता है; वह अशुभकर्म करते हुए डरता है। जिसे कर्म के अविचल कायदे की प्रतीति नहीं होती वही व्यक्ति दूसरों को पीड़ा पहुँचाता है, असत्य भाषण करता है, चोरी करता है और कुशील एवं परिग्रह में फँसता है। ये क करके वह समझता है कि मैंने दूसरे का बुरा किया और अपना भला किया लेकिन यह मात्र अप विकृत मन को झूठा संतोष देना है। वस्तुतः कर्म के प्रखण्ड नियमानुसार जो हिंसा करता है वह स्वयं हिंसित ( दण्डित ) होता है, जो ठगता है वह स्वयं ठगा जाता है, जो अन्य को भोगता है वह स्वयं भुक्त होता है। ऐसा समझने वाला साधक हिंसा, मृषावाद, स्तेय, ब्रह्मचर्य एवं परिग्रहादि दोषों से मुक्त रहता है और संयम की शुद्ध आराधना करता है।
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