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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir लोकसार नाम पञ्चम अध्ययन -द्वितीयोदेशकः(चारित्र-विकास के उपाय ) गत उद्देशक में चारित्र गठन की मीमांसा की गई है। चारित्रगठन का आधार आन्तरिक शक्ति है और आध्यात्मिक बल की अनुभूति होने से ही चारित्र का वास्तविक पालन शक्य होता है। मात्र वेश से अथवा तो विवेकशून्य क्रियाओं से चारित्र नहीं हो जाता है। चारित्र हृदय की वास्तविकता से ही उत्पन्न होता है यह पहिले उद्देशक में बतला दिया गया है। अब इस उद्देशक में आध्यात्मिक शक्तियों के विकास के उपाय बताते हैं: श्रावंती केयावन्ती लोए अणारंभजीविणो तेसु, एत्थोवरए तं झोसमाणे, अयं संधीति अदक्खू जे इमस्स विग्गहस्स अयं खणेत्ति अन्नेसी ॥ संस्कृतच्छाया—यावन्तः केचन लोके अनारम्भजीविनः, तेषु, अत्रोपरतः तत् झोषयन् अयं संधिरिति अद्राक्षीत्, यो ऽस्य विग्रहस्यायं क्षणः इति अन्वेषी । शब्दार्थ-लोए लोक में । श्रावती जितने । केयावंती-कितने । अणारंभजीविणो= हिंसादि प्रारम्भ से रहित होकर शरीर का निर्वाह करते हैं वे । तेसु-गृहस्थों के पास से निर्दोष आहार लेकर अनारंभी जीवन चलाते हैं। एत्थोवरए सावध प्रवृत्ति से दूर रह कर । तं पूर्व दोषों को । झोसमाणे क्षय करके । अयं संधि-यह अपूर्व अवसर है। त्ति इस प्रकार। अदक्खू= विचार कर देखे । जे–जो । इमस्स-इस । विग्गहस्स-शरीर के। अयं खणे वर्तमान क्षण का । अन्नेसी-अन्वेषण करता है वह सदा अप्रमत्त रहता है। भावार्थ-इस संसार में जो साधक पाप-प्रवृत्ति से निवृत्त हुए हैं वे अपने शरीरादि का निर्वाह भी गृहस्थों के पास से आहारादि लेकर अनारंभी रहकर कर सकते हैं। हे साधक ! सावध प्रवृत्ति से दूर रहकर पूर्वकम्मों को संयम द्वारा क्षय करके "यह अपूर्व अवसर प्राप्त है" ऐसा विचार कर संयम की तरफ दृष्टि रखनी चाहिए । यह शरीर और संयम के अनुकूल साधन बारबार नहीं मिलते हैं, इस बात का पुनः पुनः अन्वेषण करके अप्रमत्त रहना चाहिए । For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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