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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पञ्चम अध्ययन प्रथमोदशक ] [ ३५५ होता है। उसे विविध उपधियों का लोभ होता है अतएव वह लोभी है। वह बहुत आरम्भों में संलग्न रहता है । वह नट की तरह भोगों के लिए विविध वेश बना लेता है । अनेक तरह के ढोंग और आडम्बर दिखा कर लोगों को ठगता है । उसके अध्यवसाय सदा दुष्ट होते हैं । वह तरह २ के संकल्पों में पड़ा रहता है । ऐसा व्यक्ति हिंसादि आस्रवों में रत रहता है । वह कर्मों का बन्धन करता है । वह आरम्भ सेवन करता है लेकिन गुप्तरूप से करता है। उसे सदा यह शंका बनी रहती है कि कहीं कोई मुझे पाप सेवन करता हुआ देख न ले | इसलिए वह गुप्तरूप से कार्य करता है और विशेष दोष का भागी होता है । वह अज्ञान और प्रमाद से निरन्तर मूढ़-किंकर्त्तव्यशून्य होकर सच्चे धर्म के स्वरूप को नहीं समझ सकता है। वह संसार में परिभ्रमण ही करता रहता है । अतएव एकलविहार नहीं करना चाहिए । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्राणी विषय कषायादि से पीड़ित हैं, हिंसादि पाप-अनुष्ठान से निवृत्त नहीं हुए हैं वे अज्ञानी जीव मोक्ष की बातें करते हैं परन्तु उसके स्वरूप को नहीं समझ सकते हैं और न मोक्ष को पा सकते हैं । वे प्राणी केवल कर्मों का उपार्जन करने में ही कुशल होते हैं, धर्म में नहीं । धर्म को नहीं समझने के कारण वे दुखी होकर अरबट्टघटीयंत्र न्याय से संसार में परिभ्रमण करते ही रहते हैं। इससे सूत्रकार ने यह सूचित किया है कि मोक्ष की बातें करने से या मोक्ष का शास्त्र पढ़ लेने से मुक्ति नहीं मिल जाती। जो मोक्ष अभिलाषी होकर भी, स्वच्छंद, प्रमादी, विषय एवं कषायों से पीड़ित हैं वे न संसार की आराधना कर सकते हैं और न मोक्ष की। वे त्रिशंकु के समान बीच में ही निराधार लटके रहते हैं । वे न इस पार के रहते हैं और न उस पार ही पहुँच सकते हैं। मध्य में ही गोते खाते हैं । यह विचार कर चारित्र को सार जानकर उसमें सदा सावधान - जागरूक और यतनाशील रहना चाहिए । - उपसंहार इस उद्देशक में हिंसा का और कामभोगों का निषेध करके चारित्र का प्रतिपादन किया गया है । विषयसुख की लिप्सा से आध्यात्मिक मृत्यु होती है और शारीरिक क्षय भी होता है । वासना का सूक्ष्म असर होने के कारण अगर साधक से कोई भूल हो जाय तो उसे छिपाकर पाप की परम्परा नहीं बढ़ानी चाहिए वरन भूल का भान होने पर उसका परिणाम भोगने के लिए तय्यार रहना चाहिए। यह चरित्रगठन का सरल मार्ग है। भूल का भान भी जिज्ञासा के बाद ही होता है। सच्ची जिज्ञासा से ही तत्त्वनिर्णय होता है । तत्त्वनिर्णय ही संयम का प्रेरक है। त्यागमार्ग अङ्गीकार करने मात्र से निरारम्भी नहीं हो सकते । उसमें उपयोग की और विवेक की आवश्यकता है। बाह्य पदार्थ अशरणरूप हैं यह समझने पर सच्चा आत्मबल प्रकट होता है । अन्ततः एकलविहार अनिष्टरूप होने से वर्जनीय है यह प्रतिपादित किया है | चारित्र ही लोक का सार है अतएव सावधान रहना चाहिए। ऐसा मैं कहता हूँ । इति प्रथमोद्देशकः For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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