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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३५४ ] [ आचाराङ्ग-सूत्रम् पूर्व देश में धान्यपूरक नाम के सन्निवेश में यौवनवय में देवकुमार के समान सुन्दर किसी तापस ने ग्राम के दरवाजे के पास षष्ठभक्त (बेला) तप करना शुरू किया। दूसरे ने ग्राम के पास के पर्वत की गुफा में रहकर अष्टम भक्त (तेला ) तप करना प्रारम्भ किया और आतापना लेने लगा | ग्राम के दरवाजे के पास रहे हुए तापस के गुणों से आकृष्ट होकर लोग उसकी आहारादि से सेवा करने लगे । जब लोग उसकी स्तुति करने लगे और आहारादि से उसका सन्मान करने लगे तब वह उन मनुष्यों से बोला कि मुझ से भी अधिक कठिन तप करने वाला पर्वत की गुफा में तप करके बैठा है। बार बार उसके कहने से लोग वहाँ गये और उस तापस की भी सेवा पूजा की। दूसरों का गुण - कत्तन करना अति कठिन है परन्तु इस तापस कैसा द्वितीय गुण है कि यह दूसरों की तारीफ करता है यह समझ कर लोगों ने उसकी भी सेवा पूजा की। दोनों तापसों ने यश, पूजा और ख्याति के लिए अकेला रहना अच्छा समझा । श्राशय शुद्ध न होने से यह अप्रशस्त एक-चर्या है। इसी तरह अन्य भी उदाहरण समझे जा सकते हैं। प्रतिमाधारी, जिनकल्पी, छद्मस्थ अवस्था में रहे हुए तीर्थकर, एवं अत्यन्त आवश्यक संयोगों में संघादि के निमित्त स्थविर कल्पी का एकलविहार शुद्ध है क्योंकि वह शुद्ध आशय से किया जाता है । इनके अतिरिक्त का एकलविहार अनुचित है । वर्त्तमान काल के एकलविहार प्रायः कषाय-जन्य और प्रकृति की विषमता के कारण होता है। यह अप्रशस्त है। इससे स्वच्छन्दाचार को पोषण मिलता है और यह संयम निर्मल साधना में विघ्न डालता है । बहुत से एकलविहारी यह दलील पेश करते हैं कि हमारे सहयोगियों का आचार शिथिल है। हमसे यह सहन नहीं हो सकता। उनके साथ में रहकर हम आत्मा का उत्थान नहीं कर सकते श्रतएव विशेष रूप से धर्म-आराधन के लिए हम एकलविहार करते हैं। उनका यह कथन केवल वाग्जाल है । यह उनकी मायापूर्ण वचन-पद्धति है। दुनियाँ की खराबी से डर कर वे अलग रहते हैं यह तो केवल एक बहाना है । जो साधक स्वयं शुद्ध है वह चाहे जैसे वातावरण में अपने आपको शुद्ध रख सकता है । उपादान अगर निर्मल है तो निमित्त उसमें विकार नहीं पैदा कर सकते। अगर वह साधु स्वयं शुद्ध है तो उसे अन्य की भूलें देखकर उनसे अलग होने की कोई आवश्यकता नहीं है। सूत्रकार ने “उट्ठियवायं पवयमाणे” कह कर उसकी प्रगल्भता (अहंकार) व्यक्त की है। वह व्यक्ति मिथ्या अहंकार में फँस जाता है और मानता है कि मैं थोड़े ही दिनों में बड़ा महात्मा बन जाऊँगा, जो किसी ने नहीं किया वह मैं करूँगा । इसका नतीजा होता है केवल अधःपतन । विशेष दुख की बात तो यह है कि अकेला होने से उसे भूल सुधारने वाला मिलना भी कठिन है। एकान्तवास उन्हीं के लिए हितकर हो सकता है जिन्होंने अपनी वासनाओं और वृत्तियों पर पूरी विजय प्राप्त कर ली हो । अन्यथा एकान्तवास से घोर अनर्थ होते हैं और अनेक दुष्परिणाम निकलते हैं। एकान्त में प्राणियों को विशेष पाप करने का अवसर मिल जाता है। अनुभव यह बताता है कि एकान्त पापों को प्रेरणा देता है । वृत्तियों पर विजय पाने वाले महापुरुष ही इसके अपवाद हो सकते हैं । सूत्रकार ने एक-चर्या करने वाले के दुर्गुणों का जो सूचन किया है वह मननीय है। एकलबिहारी बहुत क्रोधी होता है। मनुष्यों द्वारा निन्दा की जाने पर वह अधिक क्रुद्ध हो जाता है। प्रायः कषायों को तता के कारण ही सहयोगी साधुओं के बीच वह नहीं रह सकता है। अतः उसका अकेला रहना उसकी क्रोधी प्रकृति का सूचक है। उसे जब कोई वन्दन करता है या आदर देता है तो उसे बहुत अहंकार आ जाता है अतएव वह बहुत मानी होता है । प्रच्छन्न रूप से दोषों का सेवन करता है अतएव मायावी For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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