________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
३५० ]
. [आचारा-सूत्रम्
वे इस संसार में पुनः पुनः दुख का अनुभव करते हैं । जो साधु का वेश धारण करके भी सावद्य अनुष्ठान करते हैं वे गृहस्थों के समान ही दुख के भागी होते हैं। संयम अंगीकार कर लेने के बाद भी विषयाभिलाषा से पीड़ित प्राणी अशरण को शरण मानकर पापकर्मों में रमण करता है।
विवेचन-इस सूत्र में कामवासना का दुष्ट परिणाम कितनी दूर तक होता है यह बताया गया है। कामवासना से पीड़ित व्यक्तियों का आध्यात्मिक और शारीरिक बल नष्ट हो जाता है। वे कामों में गृद्ध बने हुए नरकादि स्थानों में जाते हैं। कामी व्यक्ति सावध कार्यों में प्रवृत्ति करके श्रारम्भ करता है
और प्रारम्भ से पाप और पाप से जन्म-मरण का क्रम अविच्छिन्न रूप से चला जाता है। गीता में भी इस बात की निम्न श्लोकों में पुष्टि की गई है:
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते । संगात्संजायते कामः कामाक्रोधोभिजायते ॥ क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात् स्मृतिविभ्रमः ।
स्मतिभ्रंशाद् चुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥ गीता अ. २ श्लोक ६२-६३ अर्थात्-विषयों का चिंतन करने से पुरुष का विषयों में संग बढ़ता है। इस संग से यह वासना उत्पन्न होती है कि हमको विषयों की प्राप्ति हो और इस काम की तृप्ति में विघ्न होने से क्रोध की उत्पत्ति होती है, क्रोध से संमोह-अविवेक होता है । संमोह से स्मृतिभ्रम, स्मृतिभ्रम से बुद्धिनाश और बुद्धिनाश से सर्वस्व नाश हो जाता है।
तात्पर्य यह है कि जो इन्द्रियों के रूपादि विषयों में गृद्ध हैं वे प्राणी प्रारम्भ में प्रवृत्ति करते हैं और कमों का बन्धन करके पुनः पुनः दुख के सागर में डूबते हैं। चाहे गृहस्थ हो अथवा त्यागी हो, जो कोई भी विषयों में आसक्ति रखते हैं वे दुख के भागी होते हैं । कोई त्यागी यह न मान ले कि मैंने तो एक बार त्याग मार्ग अंगीकार कर लिया है अब क्या ? मैं कमों से-पाप से लिप्त नहीं हो सकता । ऐसा मानकर अगर कोई वेषधारी त्यागी आसक्त बनकर सावद्य अनुष्ठान करता है तो वह भी दुख का भागी होकर संसार के जन्म-मरण के चक्र से नहीं छूट सकता है। कई व्यक्ति अर्हत्-प्रणीत संयम स्वीकार करके भी पुनः मोह के उदय से रागद्वेष से श्राकुल होकर, विषय-ताप से संतप्त होकर अशरण को शरण मानकर सावध प्रवृत्ति में रमण करने लग जाते हैं। वे भी इसी तरह परिणाम में दुख के भागी होते हैं। क्योंकि केवल वेशमात्र धारण करने से कोई त्यागी नहीं कहा जा सकता और पापकों से नहीं बच सकता। वेशमात्र धारण करने वाला व्यक्ति बाह्य प्रारम्भ को रोकता हो तो भी वह आरम्भी कहा जाता है क्योंकि उसने
आभ्यन्तर पापों का त्याग नहीं किया है । सच्चा त्यागी बाह्य और आभ्यन्तर उभय रूप से प्रारम्भ का त्याग करता है। श्रीभगवती सूत्र में प्रारम्भ-अनारम्भ का विषय चलता है। वहाँ अप्रमत्त संयमी को अनारम्भी कहा है और प्रमत्त संयमी के दो भेद किये हैं-शुभयोग वाले और अशुभयोग वाले । शुभयोग वालों को अनारम्भी और अशुभयोग वालों को प्रारम्भी कहा गया है। यहाँ योग का अर्थ "उपयोग" से लिया गया है । जो साधु उपयोग-यतना-वाले हैं वे अनारम्भी हैं और जो साधु हो गये हैं मगर यतना को भूले हुए हैं जिन्होंने प्रारम्भ का त्याग तो कर दिया है मगर सावधान-जागरूक नहीं हैं वे प्रारम्भी हैं। इससे यह तात्पर्य निकलता है कि उपयोग. युक्त आत्मा प्रारम्भ का भागी नहीं है और अनुपयुक्त.
For Private And Personal