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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पंचम श्रेभ्ययन प्रथमोदेशक [३४६ - सेवन न करने का उपदेश देता है। इस सूत्र से सूत्रकार ने यह बताया है कि वासना को रोकने के लिए बाह्य पदार्थों के त्याग और चित्त के आकर्षण को रोकने की आवश्यकता है। साधक इस भ्रम में न रहे कि "मैं तो अनासक्त रह सकता हूँ अतएव पदार्थों के त्याग की कोई आवश्यकता नहीं" | बाह्य पदार्थों के संसर्ग का त्याग साधना के लिए आवश्यक है। जो साधक निरासक्ति के अभिमान में बाह्य पदार्थों के संसर्ग में रहते हैं-उन पदार्थों के त्याग के प्रति बेदरकार रहते हैं वे प्रायः पतन को प्राप्त होते हैं। पतन भी दो प्रकार का होता है। एक तो सावधानी रखते हुए भी गिर जाना-दूसरा बिना सावधानी के चलने से गिरना । जो सावधानी पूर्वक चलता हुआ भी गिर जाता है तो उसके अंग को इतनी हानि नहीं पहुँचती जितनी असावधानी से चलते हुए गिर पड़ने से पहुँचती है । इसी तरह जो साधक संयम में सावधान है वह कदाचित् भूल कर बैठता है तो उसको विशेष हानि नहीं पहुँचती क्योंकि वह नम्रतापूर्वक भूल स्वीकार करके उसको सुधार लेता है । दूसरी तरह का साधक जो संयम के प्रति बेदरकार है वह भूल को भूल नहीं मानता । वह मिथ्याभिमान से ग्रस्त होता है अतएव उसका पतन गहरा होता है और उसका भयंकर परिणाम आता है। इसलिए साधक का यह कर्त्तव्य है कि वह प्राप्त कामभोगों के विषयों की मन से भी इच्छा न करे और चित्तवृत्ति पर उनका असर बिल्कुल न होने देखें। अपने चित्त को विषयों से बाहिर रखे । साधना की सफलता इसीमें है। पासह एगे रूवेसु गिद्धे परिणिजमाणे, इत्थ फासे पुणो पुणो, श्रावती केयावंती लोयंसि प्रारंभजीवी, एएसु चेव प्रारंभजीवी, इत्थ वि वाले परिपञ्चमाणे रमइ पावेहि कम्मेहिं असरणं सरणं ति मन्नमाणे । संस्कृतच्छाया–पश्यत एकान् रूपेषु गृद्धान् परिणीयमानान्, अत्र स्पर्शान् पुनः पुनः यावन्तः केचन लोके प्रारंभजीविनः, एतेषु चेव आरंभजीवी, अत्रापि बालः परिपच्यमानः रमते पापैः कर्मभिः, अशरणं शरणमिति मन्यमानः । शब्दार्थ-एगे-कितनेक । रूवेसु रूपादि इन्द्रिय के विषयों में । गिद्धे आसक्त बने हए जीवों को। परिणिजमाणे-नरकादि दुर्गति में ले जाये जाते हुए । पासह तुम देखो। श्रावती जितने । केयावंती-कितने । लोयंसि लोक में । आरंभजीवी-सावद्य अनुष्ठान करने वाले हैं वे । अत्थ यहाँ संसार में। पुणो पुणो बार-बार । फासे-दुखों को भोगते हैं। प्रारंभजीवी सावद्य अनुष्ठान करने वाले अन्यतीर्थिक साधु या शिथिलाचारी । एएसु चेव-गृहस्थों के समान ही दुख के भागी होते हैं । एत्थ वि-संयम अंगीकार करने पर भी । परिपञ्चमाणे विषयाभिलापा से पीड़ित होकर। वाले अज्ञानी जीव । असरणं अशरण को । सरणं ति-शरण । मन्नमाणे-मानता हुआ । पावेहिं पापकारी । कम्मेहि-कार्यों से । रमइप्रसन्न होता है। ... भावार्थ हे भव्य जीवो! तुम रूपादि इन्द्रियों के विषयों में आसक्त बने हुए जीवों को नरकादि दुर्गतियों में ले जाये जाते हुए देखो। इस संसार में जितने कितनेक सावद्य अनुष्ठान करने वाले हैं For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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