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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पञ्चम अध्ययन प्रथमोद्देशक ] [ ३५१ श्रात्मा - चाहे वह साधु हो या गृहस्थ- पाप का भागी है । अतएव साधुओं को अपनी साधना में यतनाशील होना चाहिए। Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सूत्रकार ने इस सूत्र में आरम्भ प्रवृत्ति का एक बड़ा भारी महत्त्व का कारण बताया है । वह हैअशरण को शरण मानना । संसार के प्राणी अपनी आत्मा की अनन्त शक्ति को भूल कर बाह्य पदार्थों की शरण में जा रहे हैं । उन्हें बाह्य पदार्थ - तन, धन, जन व यौवन शरण रूप प्रतीत होते हैं और उनके लिए ही वे अपना बहुमूल्य जीवन बिता देते हैं। उन्हें यह भान नहीं होता कि अपनी ही आत्मा में अनन्त शक्ति भरी हुई है, उसे ही प्रकट करने में सच्चा आनन्द है । संसारी प्राणियों की यह कितनी अज्ञानता है कि वे धन पाकर, सुन्दर तन पाकर, बृहत्परिवार पाकर या राज्य पाकर अपने आपको नाथ मानते हैं और दूसरों के नाथ बनना चाहते हैं । ज्ञानी की दृष्टि में ऐसे प्राणी अनाथ हैं। अनाथी मुनि ने राजा श्रेणिक को-जो सारे मगधदेश का सम्राट् था, अनाथ कहा है। समझने की बात है कि जो एक विशाल राज्य का स्वामी है उसे भी मुनि ने अनाथ क्यों कहा है ? ज्ञानियों की दृष्टि में आत्म-स्वरूप ही सार तत्त्व है । उसे पाने से ही कोई नाथ हो सकता है। जिसने आत्मा का स्वरूप पा लिया वह नाथ हो जाता है, उसका नाथ कोई नहीं रहता । वह स्वयं त्रिलोकीनाथ हो जाता है। जिसने श्रात्मा को नहीं पहचाना वह सर्वोत्तम सार - रहित होने से अनाथ है। 1 संसार के प्राणी बाह्य पदार्थों को पाकर अपने आपको नाथ मानते हैं किन्तु यह अज्ञान है । नाथ तभी हुआ जा सकता है जब पदार्थ उसकी इच्छानुसार उसके वश में रहें । प्राणी अपने आपको पदार्थों नाथ कहता है लेकिन पदार्थ उसकी आज्ञानुसार नहीं चलते। प्राणी चाहता है कि यह भोगोपभोग की सामग्री मुझ से कभी अलग न हो लेकिन ऐसा नहीं होता । पदार्थ अवधि पूर्ण होने पर उस प्राणी को छोड़कर चले जाते हैं । फिर प्राणी पदार्थों का नाथ कैसे रहा ? वह तो पदार्थों का दास रहा जो उनके वश में पड़ा रहता है। प्राणी पदार्थों को अपना कहता है लेकिन पदार्थ उसकी श्राज्ञा नहीं मानते । वे उसकी इच्छा के विरुद्ध भी उससे अलग हो जाते हैं । प्राणी कहता है - यह घर मेरा है, यह मेरा धन है, यह मेरा राज्य है, यह मेरा पुत्र है लेकिन यह उसका भ्रम है । वह अभिमान करता है कि यह मेरी मोटर है, ये मेरे घोड़े हैं यह मेरे हाथी है-लेकिन क्या हाथी-घोड़े और मोटर आदि उसके हैं ? नहीं । जो पदार्थ अपना है वह अपने से कभी अलग नहीं हो सकता। जो वस्तु अपने से अलग हो जाती है वह अपनी नहीं. है । पर पदार्थों के साथ आत्मीयता का भाव स्थापित करना महान् भ्रम है । इसी भ्रमपूर्ण आत्मीयता कारण जगत् अनेक कष्टों से पीड़ित है। अगर “मैं” और “मेरी” की मिथ्या धारणा मिट जाय तो जीवन में एक प्रकार की अलौकिक लघुता, निरुपम निस्पृहता और दिव्य शान्ति का उदय होगा । प्राणी जब तक विषयों में परपदार्थों में ममत्व रखता है तब तक वह अपना नाथ नहीं हो सकता । ही सांसारिक बल का त्याग कर दिया जाता है त्यों ही आत्म-बल प्रकट होता है, वही भगवद्बल है। इसी बल से प्राणी नाथ बनता है । इस आत्मिक धन से सनाथ होने के कारण ही अनाथी मुनि श्रेणिक जैसे विशाल साम्राज्य के सम्राट् को अनाथ कह सके हैं उन्होंने स्पष्ट कहा है : अप्पणावि अणाहोसि सोणिया मगाहिया । अप्पणा भरणाहो संतो कस्स णाहो भविस्ससि ? || For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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