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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir .: [आचाराज-सूत्रम् साधक अपनी साधना में तनिक भी असावधान हुआ कि इन्द्रियाँ स्वच्छन्द हो जाती हैं और युग-युग की साधना का सर्वनाश कर डालती हैं। बड़े बड़े योगी और तपस्वी भी इन्द्रियों के आकर्षण से विचलित हो जाते हैं। ब्रह्मचर्य-साधना का मार्ग नाजुक और साथ ही विकट भी है। जो पशु दो-चार बार हरित धान्य से परिपूर्ण खेत में चर लेता है उसे फिर साधारण घास से संतोष नहीं होता। वह गोपालक की आँख बचाकर उसी खेत में दौड़ जाता है और वहीं जाकर धान्य भक्षण करता है । इस तरह दो-चार बार धान्य भक्षण करने से पशु में यह वासना घर कर लेती है तो अनादिकालीन मैथुन वासना से वासित मन को उस वासना से मुक्त करने के लिए कितनी शक्ति, कितनी जागरूकता और कितनी तल्लीनता की भावश्यकता है यह समझा जा सकता है। विषय-वासना का सूक्ष्म असर मन पर पड़ा हुआ होता है इससे यह मन अवसर पाते ही आत्मा को वासना के सागर में डुबो देता है। जिस तरह उजाड़ करने वाली गाय वध-बंधनादि क्लेश पाती है और अपने स्वामी को भी कष्ट पहुँचाती है उसी तरह मन के साथ आत्मा को भी इसलोक और परलोक में भयंकर यातनाएँ सहन करनी पड़ती हैं। जैसे उजाड़ करने वाली गाय के गले में ठेंगर (मोटी-सी लकड़ी) डाल लिया जाता है जिससे वह शीघ्र इधर-उधर नहीं भाग सकती इस तरह मन को रोकने के लिए संयम और तप रूपी ठेंगुर डाल देना चाहिए ताकि वह विचारों की ओर न भाग सके । संसार-दृष्टा साधक इसी तरह अपने मन पर विजय प्राप्त करता है। - अब्रह्म आदि संसार-सम्बन्ध का सर्वथा त्याग करने का उपदेश दे चुकने के बाद सूत्रकार यह बताते हैं कि कदाचित् पूरी सावधानी रखते हुए भी वासना का अन्तःकरण पर सूक्ष्म असर होने के कारण साधक कोई भूल कर बेठे तो क्या करना चाहिए ? भूल हो जाने पर साधक का यह कर्तव्य है कि वह भूल का गोपन न करे । शास्त्रकार ने भूल करने की अपेक्षा भूल को छिपाने में अधिक दोष कहा है। श्रनुभव बताता है कि एक भूल को छिपाने के लिए सैकड़ों भूलों के चक्कर में फंसना पड़ता है। शास्त्रकार कहते हैं कि बाल-जीवों की कितनी अज्ञानता है जो वे एक भूल को छिपाने के लिए दूसरी और दूसरी को छिपाने के लिए तीसरी भुल करके भूलों की परम्परा बढ़ाते हैं। चिकित्साशास्त्रियों का कहना है कि यदि उगते रोग को दबाया न जाय और उसे यों ही निभा लिया जाय तो वह शरीर को अत्यधिक पीड़ाकारी होता है और यदि रोग के होते ही उसका उपचार किया जाय तो वह नहीं बढ़ता है और शान्त हो जाता है । इसी तरह एक भी भूलरूपी रोग को यदि नष्ट न करके अन्दर ही गुप्त रखा जाय तो वह भयंकर फल देने वाला होता है । छोटी-सी भूल को भी निभा लेना आत्मा में रोग को बढ़ाना है । भूल एक प्रकार का फोड़ा है । उसे यदि काट कर न फेंका जाय तो वह शरीर के स्वस्थ अवयव को भी सड़ा देता है। इसी तरह भूल यदि न निकाली जाय तो वह अन्दर ही अन्दर भयङ्कर सड़ान पैदा करती है और परिणाम अति भयंकर होता है। प्रथम तो जागृत साधक प्रत्येक क्रिया खूब विचारपूर्वक करता है तो भी यदि भूल हो जाय तो वह भूल को छिपाता नहीं लेकिन उसका परिणाम भोगने के लिए तत्पर रहता है । वह एक-छोटी सी-भूल की भी उपेक्षा नहीं करता है। शास्त्रकार की दृष्टि से-भूल स्वीकार करना भूल को सुधारना है। जो साधक भूल करके उसे नहीं स्वीकार करता उसके सुधरने की गुंजाइश नहीं समझनी चाहिए । वह सदा भूलों में ही भटकता रहेगा। जो साधक मुमुक्षु है वह तो भूल को स्वीकार करके उसे सुधारता है और शुद्ध हो जाता है । भूल करके उसकी आलोचना करने वाला आराधक होता है और आलोचना न करने वाला विराधक होता है । यह समझ कर भूल का कदापि गोपन न करे। - ऊपर अब्रह्म सेवन का निषेध करके अब सूत्रकार यह बताते हैं कि साधक प्राप्त हुए विषयों को भी अपनी सूक्ष्म विवेकिनी बुद्धि द्वारा दुखरूप जानकर स्वयं त्याग करता है और दूसरों को भी विषय का For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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