SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 373
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir • [ श्राचाराङ्ग-सूत्रम भोग सकते हैं और न वे उससे दूर ही रह सकते हैं। चित्तवृत्तियों में भोगलालसा होने पर यदि बाह्य भोग के साधन न भी उपलब्ध हों तो भी वह व्यक्ति भोगों से दूर नहीं कहा जा सकता। वस्तु का सञ्चा भान जब तक न हो जाय तब तक किया हुआ या कराया हुआ त्याग फलीभूत नहीं होता । चारित्र, मात्र क्रिया रूप ही नहीं है लेकिन वास्तविक सत्य है। यह सत्य आत्मा से ही उद्भूत होता है । आत्मा को जब अपने स्वरूप का भान होता है तब आत्म-बल प्रकट होता है और इस आत्म-बल के कारण ही आत्मा सच्चा त्याग कर सकता है। इसीलिए सबल का त्याग स्वाभाविक होता है जबकि बलात् किया हुआ या बिना समझे किया हुआ त्याग वस्तुतः त्याग नहीं है । आत्मानुभूति होना ही चारित्र है। से पासइ फुसियमिव कुसग्गे पणुन्नं निवइयं वाएरियं एवं वालस्स जीवियं मंदस्स अवियाणश्रो, कूराई कम्माइं वाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेण मूढे विप्परिश्रासमुवेइ, मोहेण गम्भं मरणाइ एइ, एत्थ मोहे पुणो पुणो । संस्कृतच्छाया-स पश्यति उदकबिन्दुमिव कुशाग्रे प्रणन्नं निपतितं वातेनरितमेवं बालस्य जीवितम् मंदल्याविजानतः, क्रूराणि कर्माणि प्रकुर्वमाणः तेन दुःखेन मूढो विपर्यासमुपैति, मोहेन गर्भ मरणादिमोत, अत्र मोहः पुनः पुनः । शब्दार्थ-से वह तत्त्वदर्शी। पासइ यह देखता है कि । कुसग्गे-कुश के अग्रभाग पर रहा हुआ । फुसियं जल-बिन्दु । पणुन्नं दूसरे बिन्दुओं के ऊपर पड़ने से । वाएरियं वायु के द्वारा कम्पित होने से। निवइयं गिरने का बहुत सम्भव है। एवं इसी तरह । बालस्स= अज्ञानी । मंदस्स-अविवेकी । अविजाणो परमार्थ को न जानने वाले का । जीवियं-जीवन है। कूराइंकर । कम्माइंकों को। पकुव्वमाणे करता हुआ । बाले अज्ञानी । तेण=उस । दुक्खेण-दुख से । मूढे-मूढ़ बनकर । विप्परिासं विपरीतता को। उवेइ आप्त करता है । मोहेण–अज्ञान के कारण । गभंगर्भ को । मरणाइ मृत्यु और जन्म को | एइ प्राप्त होता है। एत्थ=इस संसार में । मोहे=मोह के कार्य गर्भ, मरणादि में । पुणो पुणो=पुनः पुनः पर्यटन करता है। भावार्थ-तत्त्वदर्शी स्पष्ट रूप से यह जानता है कि जिस तरह तृण के अग्रभाग पर रहा हुआ जल-बिन्दु, पानी के दूसरे बिन्दुओं के ऊपर गिरने से अथवा वायु से कम्पित होकर शीघ्र नीचे गिरने वाला होता है उसी तरह अज्ञानी, अविवेकी और परमार्थ को न जानने वाले अज्ञों का जीवन अस्थिर है। ऐसा होते हुए भी अज्ञानी जीव क्रूरकर्म करते समय तो दुख नहीं करते हैं परन्तु जब उसका दुप्परिणाम भोगना पड़ता है तब वे मूढ बन जाते हैं और खूब दुख पाते हैं परन्तु मोहान्धकार के कारण For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy