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पञ्चम अध्ययन प्रथमोद्देशक ]
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उन्हें सन्मार्ग नहीं सूझता है और वे मोह की प्रबलता से गर्भ, मरणादि दुख के चक्र में पुनः पुनः पर्यटन करते हैं।
विवेचन-प्रथम सूत्र में विषयों की ओर जाती हुई वृत्ति को हिंसा का कारण कहा है और उसके द्वारा आध्यात्मिक मृत्यु किस तरह होती है और उसका कर्म और गति से क्या सम्बन्ध है यह बताया गया है अब इस सूत्र में यह बताया जाता है कि ऐसे अज्ञानीजनों का जीवन भी अस्थिर और क्षणभंगुर है। सूत्रकार ने अज्ञानियों के जीवन की क्षणभंगुरता दृष्टान्त द्वारा समझायी है । वह दृष्टान्त इस प्रकार हैं।
जिस प्रकार कुश के अग्रभाग पर रहा हुआ जल का बिन्दु दूसरे-दूसरे बिन्दुओं के ऊपर गिरने से और हवा के हल्के से झोंके से शीघ्र नीचे गिर जाता है ठीक इसी तरह अज्ञानियों का जीवन क्षणभंगुर है । थोड़े ही क्षणों में वह समाप्त हो जाता है । इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है । यह शरीर एक पिंजरे के समान है। इसमें जीवरूपी हंस बंद है। पिजरे के अनेक द्वार खुले हुए हैं । ऐसी दशा में कभी भी हंस उड़ सकता है । इसमें कोई अचरज नहीं करना चाहिए। अचरज तो इस बात का होना चाहिए कि वह अब तक उड़ क्यों नहीं गया !
मानवजीवन की क्षणभङ्गरता का प्रत्यक्ष में अनुभव होता है । प्रतिदिन यह अनुभव में आता है कि कई मनुष्यों का जीवन आनन-फानन में समाप्त हो जाता है । एक व्यक्ति बैठे २ बातें कर रहा है, हास्य-विनोद में निमम है और दूसरे ही क्षण हृदय की गति रुक जाने से उसकी जीवन-लीला समाप्त हो जाती है। कई व्यक्ति बैठे २ ही लुढक जाते हैं, कई ठोकर लगते ही चल देते हैं। इस तरह इस जीवन की अस्थिरता सिद्ध ही है। श्रायुष्य का एक क्षण भी नहीं बढ़ाया जा सकता। अनन्त-शक्ति-सम्पन्न तीर्थङ्कर भी अपना या दूसरे का एक क्षण का असंख्यातवां भाग आयुष्य भी नहीं बढ़ा सकते । जीवन का कोई ठिकाना नहीं । कितने ही प्राणी गर्भ में ही मर जाते हैं, कितने ही जन्मते ही मर जाते हैं, कितने ही शैशव में ही प्रयाण कर देते हैं, कितनेक यौवन में चल देते हैं। क्या इस जीवन का एक क्षण का भी भरोसा किया जा सकता है ? ऐसा क्षणभङ्गुर जीवन है तदपि प्रमादी और अज्ञानी प्राणी अपने बहुमूल्य जीवन को प्रमाद में ही पूरा कर देते हैं । वे नित्य नयी-नयी कल्पनाएँ करते हैं औरआशाएँ बाँधते हैं। एक पल का भी भरोसा नहीं वहाँ कल अमुक करेंगे, परसों अमुक करेंगे, एक वर्ष बाद यह करेंगे, दस वर्ष बाद ऐसा करेंगे इस तरह वे मनोरथों के जञ्जाल में ही फसे रहते और बिना प्रतीक्षा किए ही मृत्यु द्वार पर आ खड़ी हो जाती है। वे पाप की पोटली लादकर चल देते हैं।
यहाँ यह शंका की जा सकती है कि प्राणिमात्र का जीवन चञ्चल और क्षणभङ्गुर है । तीर्थङ्करों का जीवन भी इसी श्रेणी में है। वे भी अपना क्षणभर भी आयुष्य नहीं बढ़ा सकते फिर सूत्र में अज्ञानियों का जीवन चञ्चल है ऐसा क्यों कहा गया है ? सामान्यतः क्यों नहीं कह दिया कि प्राणी मात्र का जीवन ओसबिन्दु के समान चञ्चल है ? इसका समाधान यह है कि यद्यपि प्राणिमात्र का जीवन चञ्चल है तदपि जो ज्ञानी और विवेकी जन होते हैं वे तो स्वयं इस बात को समझते हैं कि जीवन चञ्चल है अतएव वे इस चञ्चल जीवन में आसक्ति नहीं रखते हैं और न इसकी अभिलाषा रखते हैं। अतएव उनके लिए कहने की आवश्यकता न समझ कर अज्ञानियों का ग्रहण किया गया है। अज्ञानी प्राणी ही अपने जीवन को बहुत महत्व देते हैं और वे अपने आपको अजर-अमर समझते हो इस तरह पाप-प्रवृत्ति में जुटे रहते हैं । इसलिये उनको शिक्षा देने के लिए विशेषतः उनका प्रहण किया गया है । दूसरी बात यह है कि ज्ञानीजन
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