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पश्चम अध्ययन प्रथमोद्देशक ]
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निर्भय बनाना है । क्योंकि जो प्राणी पाप से-हिंसा से डरते हैं वे किसी की हिंसा नहीं करते । फलस्वरूप वे ऐसी स्थिति में पहुंच जाते हैं जहाँ कोई उनकी हिंसा नहीं कर सकता अर्थात् वे अजर-अमर हो जाते हैं। इसके विपरीत जो प्राणी हिंसा से नहीं डरते-नहीं शर्माते वे अपने पाप के कारण योनियों में जन्ममरण करते हैं और दूसरों के द्वारा हिंसित होते हैं और सदा भयभीत बने रहते हैं कि कहीं मुझे न मार डाले । जो हिंसक है वह सदा भयभीत रहता है और जो अहिंसक है वह सदा निर्भय रहता है। हिंसा से डराकर अहिंसा का श्राचरण करने का उपदेश देना वस्तुतः प्राणियों को अभय बनाना है । अहिंसक प्राणियों को जन्म-मरण का भय नहीं रहता है।
जो दूसरे जीवों पर हिंसा का प्रयोग करता है वह पहले आपने आपकी (आत्मा की) हिंसा करता है। जो व्यक्ति जितनी अधिक हिंसा करता है उसकी आत्मा उतनी ही अधिक उपहत होती है। आत्माभिमुखता से जो जीव जितना दूर है वह दूसरे प्राणियों के साथ मैत्रीभाव रखने से भी उतना ही दूर है। आत्माभिमुखता जागृत होने पर प्राणी सभी प्राणियों के साथ मैत्रीभाव करता है । वह किसी की भी हिंसा नहीं कर सकता। जिसकी आत्मा विकारों द्वारा विकृत है वही जीवों की हिंसारूप प्रारम्भ कर सकता है। वह हिंसा चाहे प्रयोजन से-अर्थ, काम, धर्मादि के लिए की जाती हो चाहे विनोद और व्यसन के तौर पर बिना किसी प्रयोजन से की जाती हो लेकिन उसका परिणाम अति विषम होता है। वह प्राणी जन्म-मरण की परम्परा से मुक्त नहीं हो सकता है। वह ज्यों-ज्यों हिंसा करता है त्यों-त्यों अधिक स्वयमेव उपहत होता है अतएव तत्त्वदर्शी प्राणी हिंसा से सर्वथा अलिप्त रहते हैं ।
अब सूत्रकार यह बताते हैं कि प्राणी हिंसा में प्रवृत्ति क्यों करते हैं ? हिंसा में प्रवृत्ति करने का कारण विकृत आत्मा का विषयाभिलाष रूप परिणाम है । राग-द्वेष से कलुषित आत्मा का पर पदार्थों में सुख मानना यही हिंसा का कारण है। आत्मा की वास्तविक ज्योति जब मन्द पड़ जाती है तब वह विकारों के द्वारा विकृत वातावरण में खिंच जाता है और बाह्य विषयों में सुख प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। ज्यों-ज्यों विषयों की ओर आत्मा खिंचता चला जाता है त्यों-त्यों आत्मभान से वह दूर होता जाता है। इसलिए वह अपने माने हुए मिथ्या सुख के लिए अन्य प्राणियों का वध करता है। शब्दादि विषयों में श्रासक्त बना हुआ जीव श्रारम्भ-अनारम्भ, हिंसा-अहिंसा का विचार नहीं करता है। शब्दादि विषयों में उन्हें सुख मालूम होता है लेकिन यह प्रतीयमान सुख वस्तुतः दुख है। सुखाभिलाषा से प्राणी दुख को मोल ले रहे हैं । कैसी मूढ़ता ? कैसी विपरीत बुद्धि ? श्रात्मा की उस विपरीत परिणति के कारण शब्दादि विषयों का त्याग उन्हें भारी मालूम पड़ता है । भान भूले हुए आत्मा शब्दादि विषयों में ही सुख ढूँढने का प्रयास करते हैं लेकिन उन्हें विपरीत फल मिलता है । कामभोगों से रत रहने से और प्राणियों का उपमर्दन करने से वे संसाररूपी समुद्र में गोते खाते हैं, जन्म-मरण करते हैं, इस संसार चक्र में निरन्तर परिभ्रमण करते रहते हैं। अतएव वे मोक्ष से-शाश्वत सुख से सदा दूर रहते हैं । संसारवर्ती प्राणी जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक आदि से ग्रस्त हैं तदपि प्राणियों की बुद्धि का ऐसा विपरीत संक्रमण हो गया है कि इन्हीं में उन्हें सुख की झांकी दिखाई देती है । संसार का कोई भी जीव चाहे वह बाह्यदृष्टि से कितना ही सुखी क्यों न नजर आता हो, रोग-शोक से मुक्त नहीं है। भोग भोगते हुए भी उसे रोग की शंका बनी रहती है । कहीं मैं जल्दी न मर जाऊँ यह भय बना रहता है, कहीं ये विषयादिक मुझ से छीन न लिए जाएँ, मैं इनसे वड़ित न हो जाऊँ इत्यादि भय उसे सदा सशंक बनाये रखते हैं जिससे वह न तो भोग ही भोग सकता है और न उसे छोड़ ही सकता है। जिस प्रकार कुत्ता हड्डी को चबा भी नहीं सकता और आसक्ति के कारण छोड़ भी नहीं सकता उसी तरह कामी जीव रोगादि की शंका से न तो भोग ही
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