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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३४०] [श्राचाराङ्ग-सूत्रम् जन्म में फंसा रहता है। तो इसलिये । सेवह | दूरे मोक्ष से और उसके उपायों से दूर रहता है । से वह । नेव-न तो। अंतो वह विषयों के अन्दर है । नेव दूरे और न विषयों से दूर है। भावार्थ- इस संसार में जो कोई सप्रयोजन या निष्प्रयोजन षट्काय जीवों की हिंसा करते हैं वे उन्हीं जीवों की गतियों में जाकर उत्पन्न होते हैं और वहां अपने बांधे हुए कर्मों को भोगते हैं । ऐसे अतत्त्वदर्शी के लिए विषय भोगों का छोड़ना अति कठिन होता है । इसलिये वे मरण की परम्परा से नहीं छूट सकते और इसीलय वे मोक्ष से या सुख से दूर रहते हैं । इससे यह होता है कि वे विषय सुख को न तो भोग सकते हैं और न, (चित्तवृत्ति का वेग विषयों की ओर होने से) उनसे दूर ही रह सकते हैं। विवेचन-चारित्र का प्रतिपादन करते हुए सूत्रकार सर्व प्रथम हिंसा का दुष्परिणाम बतलाते हैं। ऐसा करने का आशय यह है कि चारित्र का सब दारमदार अहिंसा पर निर्भर है। अहिंसा की नींव पर ही चारित्र का चयन हो सकता है अतएव जो चारित्र-प्राप्ति का इच्छुक है उसे सर्व प्रथम हिंसा का त्याग करना चाहिए। षट्काय जीवों को पीड़ा पहुंचाते हैं वे प्राणी भी उसी तरह पीड़ा को प्राप्त करते हैं। षट्काय की विराधना करता है वह पुनः पुनः जो अनेकशः सूक्ष्म, बादर, अपर्याप्त आदि अनेकविध एकेन्द्रियादि योनियों में उत्पन्न होते हैं । अथवा जिन जीवों की हिंसा करता है उनकी योनि में उत्पन्न होकर अपने बाँधे हुए कर्मों का तत्तत्प्रकार से फल प्राप्त करता है । _ हिंसा का उक्त दुष्परिणाम बताकर सूत्रकार दो बातों की ओर संकेत करते हैं-(१) जो लोग इसी वर्तमान भव को सब कुछ समझते हैं और भूत एवं भावी जन्मों को असत् समझ कर उनकी ओर दुर्लक्ष करते हैं और विषयों में लीन होकर आत्मद्रव्य का अभाव मानते हैं उनका मत इस कथन द्वारा तिरस्कृत करते हैं। (२) जो लोग आत्मा का पुनर्जन्म होना तो मानते हैं लेकिन यह मानते हैं कि पुरुष मर कर पुरुष ही होता है, स्त्री मर कर स्त्री ही होती है, पशु मर कर पशु ही होता है उनके मत का भी इससे निरास हो जाता है । आत्मा का अस्तित्व और उसका भावान्तरगमन प्रथम अध्ययन में सिद्ध किया जा चुका है। दूसरी मान्यता वाले भी केवल अपना अज्ञान प्रकट करते हैं। अगर ऐसा है कि जो जिस रूप में है वह उसी रूप में रहेगा तो पुरुषार्थ का नाम ही उठ जाएगा। पुण्य, पाप, स्वर्ग, नरक सबका अभाव हो जायगा। फिर धर्म, कर्म सब निष्प्रयोजन हो जाएंगे। यह मानना नितान्त अज्ञान ही है। सूत्रकार ने स्पष्टरूप से चेतावनी दी है कि अगर हिंसा करोगे तो तुम भी हिंसित बनोगे। जो दूसरों की विराधना करता है वह स्वयं विराधित होता है। जो दूसरों को पीड़ा पहुंचाता है वह स्वयं भी पीड़ित होता है। अगर पृथ्वीकाय की हिंसा करोगे तो पृथ्वीकाय में जन्म लेना पड़ेगा और वहाँ दूसरों के द्वारा हिंसित होकर अपने कर्म का फल भोगना पड़ेगा। याद रखना चाहिए कि कम का शासन अविचल है, उसके अखण्ड नियमों में अपवाद नहीं है । वहाँ तो अदल इन्साफ है । जो जैसा करेगा उसे वैसा ही फल प्राप्त होगा इसमें कभी अव्यवस्था और संदेह नहीं हो सकता है। सूत्रकार यह कहकर भव्य जीवों को हिंसा से डराना चाहते हैं। यद्यपि शास्त्रकार किसी को डराते नहीं, वे डर को भगाने वाले हैं वे भय का भंजन करने वाले हैं फिर भी वे प्राणियों को पाप का दुष्परिणाम बताकर पाप से डराते हैं। वस्तुतः यह डराना, डराना नहीं लेकिन उन्हें निर्भय करना है । धर्म और पुण्य से डराना, डराना है। पाप से डराना For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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