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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अध्ययन प्रथमोद्देशक ] [ ३३६ राज्य को सार समझ कर भयङ्कर लड़ाईयाँ लड़ता है और विश्वविजयी बनने की महत्वाकांक्षा रखता है। कोई यौवन से मदमाती तरुणियों को ही सार समझते हैं और विलास में डूबे रहते हैं, लेकिन वे लोग जिसे सार समझते हैं वह उन्हें धोखा दे देता है और इस प्रकार धन, राज्य और स्त्री आदि अपनी असा रता प्रकट करते हैं । असार को सार समझने वाली दुनिया कितनी दुखी है ! यही जग के दुखों का कारण है । सूत्रकार स्पष्ट निर्देश करते हैं कि राज्य, धन, स्त्री पुत्रादि परिवार ये सारभूत नहीं हैं, ये असार, अशरण और अत्राता हैं। संयम ही लोक में सार है-शरण भूत है और त्राता है। कहा है: लोगस्स सारो धम्मो धम्मंपि य नाणसारियं बिंति । नाणं संजमसारं संजमसारं च निव्वाणं ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अर्थात् समस्त लोक का सार धर्म है, धर्म का सार ज्ञान है, ज्ञान का सार संयम है और संयम कसार निर्वाण है । अतएव निर्वाण प्राप्ति के लिए सद्धर्म का पालन करना चाहिए । प्रश्न होता है कि सदूधर्म क्या है ? इसका उत्तर यह है कि 1 वत्थुसहावो धम्मो | अर्थात् वस्तु का स्वभाव धर्म है। जड़ वस्तुओं का और चेतन का धर्म निराला है । श्रात्मा अपने स्वभाव में रमण करे, वह परभाव जड़ वस्तुओं के प्रति आसक्ति न रखे- उनमें ममत्य-स्थापन न करे यही धर्म है । इस श्रात्मधर्म को प्राप्त करने के जो साधन हैं वे भी धर्म कहे जा सकते हैं। क्योंकि कार्यकारण में अभेद का उपचार किया जाता है। इसलिये श्रात्माभिमुख प्रवृत्ति कराने वाला और विषयों की अभिलाषा को मंद करने वाला ही धर्म है। ऐसा धर्ममय जीवन ही चारित्रमय जीवन है। अब सूत्र का प्रारम्भ होता है: श्रावंती केयावंती लोयंसि विप्परामुसंति श्रट्टाए थट्टाए, एएस चेव विप्परामुसंति, गुरू से कामा, तत्रो से मारते, जत्रो से मारते तो से दूरे, नेव से तो नेव दूरे । संस्कृतच्छाया - यावन्तः केचन लोके विपरामृशन्ति, अर्थायानर्थाय, एतेषु चैव विपरामृशन्ति । गुरवस्तस्य कामाः, तस्मात् सः मारान्तर्वर्त्ती, यतः स मारान्तर्वर्त्ती ततोऽसौ दूरे ( मोक्षोपायात् ) नैवासौ अन्तर्वर्त्तते नैव दूरे | शब्दार्थ — लोयंसि = संसार में | आवंती = जितने | केयावंती = कितनेक | अड्डाए=प्रयोजन के लिए | अड्डा = बिना प्रयोजन से । विप्परा मुसंति = षड्जीवनिकाय को पीडा पहुँचाते हैं वे । एएस चेव इन्हीं षड्जीवनिकायों में । विप्परामुसंति - पुनः पुनः जन्म लेते हैं। से उस अज्ञानी को । कामा= शब्दादि विषय | गुरू = छोड़ने कठिन मालूम होते हैं । तो इसलिये । से = वह | मारंते = जन्म-मरण में फँसा रहता है । जो = क्योंकि । से= वह | मारते = मृत्यु और For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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