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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir लोकसार नाम पञ्चम अध्ययन -प्रथमोद्देशकः( चारित्र-प्रतिपादन) चतुर्थ अध्ययन में सम्यक्त्व का प्रतिपादन किया गया है। सम्यक्त्व के होने पर ही ज्ञान हो सकता है अतएव ज्ञान और सम्यक्त्व सहभावी हैं। जिस तरह रूप और रस सहचर हैं, रूप के बिना रस नहीं और रस के बिना रूप नहीं, जहाँ रूप है वहाँ रस है और जहाँ रस है वहाँ रूप है इसी तरह जहाँ सम्यक्त्व है वहाँ ज्ञान है और जहाँ ज्ञान है वहाँ सम्यक्त्व है । सम्यक्त्व के बिना ज्ञान नहीं और ज्ञान के बिना सम्यक्त्व नहीं । सम्यक्त्व और ज्ञान का फल चारित्र है और चारित्र ही प्रधानतः मोक्ष का अंग है अतएव इस अध्ययन में अब चारित्र का प्रतिपादन किया जाता है। “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' अर्थात्-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र मोक्ष के मार्ग हैं। सम्यक्त्व के वर्णन से दर्शन और ज्ञान का विवेचन चतुर्थ अध्ययन में हो चुका है अतएव अब पञ्चम अध्ययन में क्रमप्राप्त चारित्र का प्रतिपादन करते हैं। - इस अध्ययन का नाम. लोक-सार रक्खा गया है। लोक-सार नाम क्यों दिया गया ? लोक-सार का क्या अर्थ है ? इस नाम-निर्देश का क्या उद्देश्य है ? इत्यादि प्रश्नों का विचार करना चाहिए । लोकसार यह शब्द दो पदों से बना हुआ है-लोक और सार । चतुर्दशरज्ज्वात्मक लोक कहा गया है। इसमें नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य, देव और सिद्ध गतियों का अन्तर्भाव हो जाता है । अथवा द्रव्य लोक जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल रूप से छह प्रकार का है और भावलोक औदायिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औपशमिक पारिणामिक और सामुदायिक रूप से छः प्रकार का है। अथवा सर्व द्रव्य-पर्यायात्मक लोक है। सार के दो भेद हैं-द्रव्यसार और भावसार । सार शब्द का अर्थ प्रधान तत्त्व है यथा-दूध का सार घी, द्विपद में सार जिनेश्वर देव, चतुष्पद में सार सिंह, अपद (वृक्षादि) में सार कल्पवृक्ष, अचित्त पदार्थों में मा बैडर्यादि मणि । भावसार सामान्य रूप से कार्य की सिद्धि होने को कहा जाता है। जिस प्रकार कोई व्यक्ति व्यापार में प्रवृत्त हुआ और उसने उसमें इच्छित लाभ उपार्जित किया यह भावसार कहा जाता है लेकिन यह फलसिद्धि प्रात्यन्तिक और ऐकान्तिक नहीं होती। इसमें विविध प्रकार की बाधाएँ होने से यह निराबाध नहीं है अतएव यह भावसार नहीं समझना चाहिए अपितु जो आत्यन्तिक और ऐकान्तिक व निराबाध सुख रूप फल की साधना है वही भावसार है । सिद्धि की प्राप्ति ही सचमुच भावसार है । सिद्धि के लिए ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही उपयोगी अंग हैं अतएव ये ही भावसार कहे जाते हैं और यहाँ सार शब्द से इन्हीं का ग्रहण समझना चाहिए । चारित्र ही मोक्ष का प्रधान अंग होने से वही लोक का सार है। इसमें चारित्र का प्रतिपादन किया गया है अतएव इस अध्ययन का नाम लोकसार रक्खा गया है। चारित्र प्रतिपादक अध्ययन का नाम लोकसार रखकर सूत्रकार यह सूचित करते हैं कि-संसार के प्राणी मोहान्धता के कारण कोई धन को सार समझ कर उसी की प्राप्ति में जीवन के जीवन बिता देते हैं, कोई For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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