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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चतुर्थ अध्ययन चतुर्थोद्देशक ] [ ३२६ और वीर्य बनता है । शारीरिक विज्ञानवेत्ताओं का कथन है कि मनुष्य जो आहार करते हैं उसका तीस दिन के पश्चात् वीर्य बनता है। साथ ही उनका यह भी कथन है कि एक मन आहार से एक सेर रक्त बनता और एक सेर रक्त से केवल दो तोला वीर्य बनता है। इस क्रम पर विचार करने से प्रतीत होता है कि यदि कोई मनुष्य सेर आहार प्रतिदिन करे तो चालीस दिनों में उसे केवल दो ही तोला वीर्य की प्राप्ति हो सकेगी। जीवन के लिए अनिवार्य ऐसे बहुमूल्य पदार्थ को जो लोग क्षणभर की तृप्ति के लिए गँवा देते हैं की मूर्खता का क्या वर्णन किया जाय ? एक बार वीर्य को नष्ट करने का अर्थ है - लगभग चालीस दिन की कमाई को धूल में मिला देना, चालीस दिन तक किये हुए आहार को वान जीवन के चालीस दिन कम कर लेना। इतना ही नहीं लेकिन जीवन का का और मानसिक शान्ति आदि भी वीर्यनाश से नष्ट हो जाते हैं । व्यर्थ कर देना और मूल्यसामर्थ्य, स्वास्थ्य, शरीर मरणं बिन्दुपातेन जीवनं बिन्दुधारणात् को अर्थात् वीर्यनाश ही मृत्यु है और वीर्यरक्षा ही जीवन है । इस आयुर्वेद के स्वर्णिम सूत्र भुलाकर आर्य-प्रजा भी दिनोदिन ब्रह्मचर्य का नाश करके रसातल की ओर जा रही है यह खेद का विषय है । यही कारण है कि शारीरिक शक्ति के ह्रास के साथ ही मानसिक दृढ़ता भी नष्ट हो गई है । ब्रह्मचर्य के बिना संकल्पों में दृढ़ता नहीं आ सकती और जब तक संकल्पों में दृढ़ता नहीं आती वहाँ तक सांसारिक या पारमार्थिक कोई भी कार्य पूरा नहीं हो सकता । संसार के सभी महापुरुषों ने अपनी दृढ़ संकल्प शक्ति के कारण बड़े बड़े कार्य सम्पन्न किए हैं। बिना ब्रह्मचर्य के दृढ़ संकल्प शक्ति आ नहीं सकती । ब्रह्मचर्य ही शक्ति का मूलमंत्र है, बुद्धि को तेज करने वाला है और शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शक्ति को प्रकट करने वाला है । अध्यात्म भावनाप्रधान ऋषियों और मुनियों ने ब्रह्मचर्य को आचार में सर्वश्रेष्ठ स्थान दिया है। यह इतना महान् व्रत है कि उसके यशोगान का अन्त नहीं हो सकता । भगवान् ने सूत्रकृताङ्ग सूत्र में फरमाया है - "तवेसु वा उत्तमं बंभचेरं" सभी तपों में ब्रह्मचर्य उत्तम तप है । प्रश्न व्याकरण सूत्र में भगवान् ब्रह्मचर्य की महिमा इस प्रकार कही है: ब्रह्मचर्य उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व तथा विनय का मूल है। यम और नियमरूप प्रधान गुणों से युक्त है । हिमवान् पर्वत से महान और तेजस्वी है । ब्रह्मचर्य का अनुष्ठान करने से 'मनुष्य का अन्तःकरण प्रशस्त, गम्भीर और स्थिर हो जाता है । साधुजन ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं। वह मोक्ष का मार्ग है । निर्मल सिद्ध गति का स्थान है, शाश्वत है, अव्याबाध है । जन्म-मरण का निरोध करने वाला है । प्रशस्त है, सौम्य है, सुखरूप है, शिवरूप है, अचल और अक्षय बनाने वाला है । मुनिवरों ने, महापुरुषों ने धीर-वीरों ने और धर्मात्माओं ने सदा इसका पालन किया है। यह शंकारहित है, भयरहित है, खेद रहित है और पाप की चिकनाहट से रहित है । यह समाधि का स्थान है । ब्रह्मचर्य का भङ्ग होने से सभी व्रतों का तत्काल भङ्ग हो जाता है, सभी व्रत, विनय, शील, तप, नियम गुण आदि दही के समान मथ जाते हैं-चूर-चूर हो जाते हैं, बाधित हो जाते हैं, पर्वत के शिखर से गिरे हुए पत्थर के समान भ्रष्ट हो जाते हैं - खण्डित हो जाते हैं। निरतिचार ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला ही सुब्राह्मण है, सुश्रमण है, सुसाधु हैं। जो ब्रह्मचर्य का शुद्ध पालन करता है, वही ऋषि है, वही मुनि है, वही संयमी है, वही भिक्षुक है। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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