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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३२८] .. [प्राचारान-सूत्रम में खून और मांस को बढ़ाने वाले पदार्थों का सेवन करने की मूर्खता न कर बैठे इसलिए सूत्रकार ने यहाँ वीरता के अर्थ को स्पष्ट कर दिया है । वीरता का अर्थ शारीरिक पुष्टि नहीं लेकिन अात्मिक शक्ति से है । वीरता चैतन्य का गुण है । चैतन्य का जितना वकास होता है उतना ही वीरत्व प्रकट होता है । चैतन्य पर जितना आवरण रहता है उतना ही वीरत्व का वास होता है। दृढ़ संकल्प बल, इन्द्रियविजय और ब्रह्मचर्य के द्वारा वीरता प्रकट होती है। सच्चा वीर त्तियों के विजय को ही सच्ची विजय समझता है । इसलिए वह वृत्ति के विजय के लिये शरीर और मन दोनों को कसता है । शरीर और इन्द्रियों की पुष्टता, बहुत करके काम-विकारों को जागृत करने वाली होती है । वैसे ही इन्द्रियां अति चञ्चल होती हैं इस पर यदि उन्हें नित्य पोषण मिलता रहे तो तो उनमें अनावश्यक चञ्चलता आ जाती है और वे आत्मा को पतन के गर्त में गिरा देती है । बन्दर स्वभावतः चञ्चल है इस पर उसे यदि मदिरा पीने को मिल जाय तो उसकी चञ्चलता का कहना ही क्या ? ठीक उसी तरह चञ्चल इन्द्रियों को आवश्यकता से अधिक पोषण मिलता है तो उनके उन्मार्ग में जाने की बहुत अधिक सम्भावना हो जाती है। पुष्ट शरीर और पुष्ट इन्द्रियां आत्मा को विलास के मार्ग पर खीचती हैं इससे साधना विकृत हो जाती है इतना ही नहीं लेकिन कमों का बन्धन भी हो जाता है । इस अाशय से साधक को देह में अनावश्यक खून और मांस को न बढ़ाने का और देह का दमन करने उपदेश दिया गया है। संयम की साधना के लिये ब्रह्मचर्य द्वारा देह और इन्द्रियों का निग्रह करना चाहिए । आत्म-साक्षात्कार और परमात्म-दर्शन के लिए ब्रह्मचर्य की अनिवार्य आवश्यकता होती है। ब्रह्मचर्य का अर्थ अति विस्तृत, गहन और व्यापक है। 'ब्रह्म' शब्द के अनेक अर्थ हैं। ब्रह्म का अर्थईश्वर अथवा आत्मा मुख्य रूप से होता है । "ब्रह्मणि चर्यते अनेन इति ब्रह्मचर्यम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार श्रात्मा में-परमात्मा में-जिसके द्वारा रमण किया जाय वह अथवा आत्मा में तन्मय हो जाना ब्रह्मचर्य है । इस व्युत्पत्ति से यह अर्थ निकलता है कि आत्मा में परब्रह्म में तल्लीन हो कर आत्मा और परमात्मा का अभेद अनुभव करना ब्रह्मचर्य है। यह ब्रह्मचर्य का गम्भीर और विस्तृत अर्थ होता है लेकिन यह शब्द अब काम विकार को जीतने के अर्थ में ही रूढ़ हो गया है । वस्तुतः ब्रह्मचर्य के बिना आत्मा का विकास नहीं हो सकता। जब तक प्राणी विलासो का कीड़ा बना रहता है वहाँ तक उसे किसी भी कार्य में सफलता नहीं मिल सकती। आध्यात्मिक विषयों की बात तो दूर रही लेकिन संसार व्यवहारों में भी ब्रह्मचर्य के अभाव से भयंकर हानियां दृष्टिगोचर हो रही हैं । विलासों में मग्न रहने के कारण कई राजाओं ने अपने राज्य से हाथ धोये हैं। मुगल साम्राज्य का अन्त इस बात की साक्षी देता है। ब्रह्मचर्य के अभाव से आज भारतीय प्रजा तेजोहीन और शक्तिहीन बन गई है। जिन युवकों में यौवन का उछलता हुआ खून होना चाहिए वे युवक अपना तेज गवा कर कृत्रिम सौन्दर्य के साधनों से अपना शरीर सजाते हैं। उनमें स्फूर्ति, उत्साह और उमंग दिखाई देनी चाहिए लेकिन वे केवल मिट्टी के पुतले दिखाई देते हैं उनमें किसी तरह का संकल्प-बल दृष्टिगोचर नहीं होता है । यह ब्रह्मचर्य के अभाव का परिणाम है। अगर हम यह चाहते हैं कि हमारी प्रजा तेजस्वी, शक्तिसम्पन्न बने तो यह कार्य ब्रह्मचर्य की आराधना के बिना नहीं हो सकता। __ ब्रह्मचर्य के बिना शारीरिक और मानसिक शक्ति का बराबर गठन नहीं हो सकता है । स्वास्थ्य की दृष्टि से शरीर का राजा वीर्य कहा गया है। वीर्य शरीर के धातुओं का सार है। वीर्य शरीर का अनमोल रत्न है । मनुष्य जो आहार करते हैं उसका रस बनता है, तदनन्तर रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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