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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३३० ] [आचाराग-सूत्रम् उपयुक्त प्रश्न व्याकरण सूत्र के उद्धरण से ब्रह्मचर्य की महत्ता का बोध हो जाता है। इससे अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है। ब्रह्मचर्य की स्थिरता के लिये केवल स्पर्शनेन्द्रिय के निग्रह से ही काम नहीं चलता लेकिन पांचों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है । स्वाद-विजय इसका प्रधान अंग है । जो व्यक्ति स्वाद पर विजय पाये बिना ब्रह्मचर्य-पालन की आशा करता है वह भ्रम में है। इसी तरह घ्राण, चक्षु और श्रोत्रेन्द्रिय का भी निग्रह आवश्यक है। इन्द्रिय-संयम और वृत्तिविजय द्वारा ही ब्रह्मचर्य साध्य हो सकता है । इसीलिए ब्रह्मचर्य पालन के लिए नव-वाड़ों का कथन किया गया है। जो व्यक्ति ब्रह्मचर्य द्वारा अपने देह और मन का दमन करता है वही वीर है, वह मुक्ति-गमन के योग्य है और उसीके वचन आदरणीय और माननीय हैं । यह समझ कर साधक को ब्रह्मचर्य के विषय में खूब सतर्क रहना चाहिए। नित्तेहिं पलिच्छिन्नेहिं पायाणसोयगढिए बाले, अव्वोच्छिन्नबंधणे, अणभिकंतसंजोए तमंसि अवियाणश्रो प्राणाए लंभो नत्थि त्ति बेमि । संस्कृतच्छाया—नेत्रैः परिच्छिन्नैः आदानस्रोतोगृद्धः बालः अव्यवच्छिन्नबंधनः अनभिक्रान्तसंयोगः तमास अविजानतः, आज्ञायाः लाभो नास्तीति ब्रवीमि । शब्दार्थ-नित्तेहि नेत्रादि इन्द्रियों के । पलिच्छिन्नेहि विषयों को रोक कर, फिर किसी कारण से । आयाणसोयगहिए-कर्म के आस्रव के कारणों में आसक्त होता है वह । बाले= अज्ञानी है । अव्वोच्छिन्नबंधणे-उसके किसी प्रकार के बन्धन नहीं कटते हैं । अणभिकंतसंजोए= वह धनधान्यादि संयोगों से मुक्त नहीं है । अवियाणो ऐसे अज्ञानी को । तमंसि=भावान्धकार में रहने से । आणाए भगवान् की आज्ञा का। लंभो नत्थि लाभ नहीं होता है। त्ति बेमि= ऐसा मैं कहता हूँ। भावार्थ-कतिपय साधक प्रथम तो नेत्रादि इन्द्रियों को अपने विषयों पर जाती हुई रोककर साधना के मार्ग में जुड़ते हैं लेकिन बाद में पुनः मोह-वश होकर विषयों में आसक्त हो जाते हैं। ऐसे अज्ञानी जीव किसी प्रकार के बन्धन से अथवा प्रपंच से नहीं छूट सकते हैं और मोहरूपी अन्धकार में रहने से तीर्थकर देव की आज्ञा के आराधक नहीं हो सकते । विवेचन-ऊपर के सूत्रों में संयम में अप्रमत्त रहने वाले साधकों का वर्णन किया गया है। अब प्रमत्तों का वर्णन किया जाता है । अप्रमत्त दशा के लाभ बताने के पश्चात् अब प्रमत्त दशा से होने वाली हानियाँ बताते हैं। लाभ और हानि तथा उसके कारणों को जानकर लाभ में प्रवृत्ति करनी चाहिए । शास्त्र कार को प्राणियों की प्रवृत्ति अप्रमाद में करानी है अतएव वे विभिन्न तरह से अप्रमाद के लाभ और For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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