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चतुर्थ अध्ययन चतुर्थोद्देशक ]
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जिनके हृदय में अनुराग है, संयम के साथ जिनकी तन्मयता हो जाती है वे ही संयम को यथावत् पाल
कम-क्षय कर सकते हैं। साथ ही साथ प्रत्येक क्रिया को करते समय साधक को सदा जागृत रहना चाहिए। प्रत्येक क्रिया में उपयोग का पूरा ध्यान रखना चाहिए । इसलिए पाँच समितियों का पालन और ज्ञानादि गुणों से युक्त होकर कर्म-क्षपण के लिए प्रयत्नशील बनना चाहिए। जो सावधानी के साथ संयम का पालन करता है वह शीघ्र कर्मों का अन्त कर देता है। अतएव संयम में सावधान रहना चाहिए।
यहाँ यह आशंका की जा सकती है कि पहिले कई बार संयम में सावधान रहने का कहा जा चुका है फिर पुनः पुनः यह उपदेश क्यों दिया जाता है ? इसका समाधान स्वयं सूत्रकार ने किया है कि "दुरणुचरो मग्गो वीराणं अनियट्टगामीणं' अर्थात्-मोक्षगामी वीरों का मार्ग बड़ा विकट है। इससे यह ध्वनित होता है कि साधना-मार्ग जैसा-वैसा नहीं है लेकिन यह अति विकट मार्ग है। इस मार्ग पर चलते हुए सदा सावधानी रखनी चाहिए अन्यथा हानि की सम्भावना है । यह सूचित करने के लिए तथा सदा जागृत रहने के लिए बार-बार यह उपदेश दिया जाता है। अग्नि में जल मरना, पर्वत से कूद पड़ना और समुद्र में डूब मरना सरल है, लेकिन चित्तवृत्तियों पर पूरा अधिकार करना बड़ा कठिन है । बड़े बड़े साधक और मुमुक्षु इन चित्तवृत्तियों के वेग के सामने हार स्वीकार कर लेते हैं और संयम के उच्च स्थान से गिर जाते हैं। चित्तवृत्तियों के वेग के आगे हार न मानकर उन पर अपना वर्चस्व कायम करना यही संयम है और इसी संयम के लिए पुनः पुनः उपदेश दिया जाता है । पुनः पुनः उपदेश-श्रवण से संयम में स्थिरता बनी रहे इसी उदार आशय से पुनः पुनः संयम का उपदेश दिया जाता है। इससे संयम की महत्ता समझ कर उसके प्रति सावधान होना चाहिए ।
विगिंच मंससोणियं, एस पुरिसे दविए वीरे, प्रायाणिजे वियाहिए जे धुणाइ समुस्सयं वसित्ता बंभचेरंसि ।
संस्कृतच्छाया-विवेचय मांसशोणितं, एषः पुरुषः द्रविकः, वीरः आदानीयः व्याख्यातः यो धुनाति समुच्छये उषित्वा ब्रह्मचर्ये ।
शब्दार्थ-मंससोणियं मांस और खून को । विगिंच सुखाकर । बंभचेरंसि=ब्रह्मचर्य में । वसित्ता-रहकर । जे जो । समुस्सयं शरीर को । धुणाइ=धुनता है । एस वह । पुरिसे= पुरुष । दविए-मोक्ष के योग्य । वीरे-सच्चा वीर । आयाणिज्जे ग्राह्य-वचन वाला । वियाहिए= कहा जाता है।
. भावार्थ-जो अहंकार और कामवासना को उत्तेजित करे इस तरह शरीर में खून और मांस को न बढ़ाकर तपश्चर्या द्वारा देह का दमन करता है तथा ब्रह्मचर्य में रहकर जो शरीर को धुनता है--यही वीर पुरुष मोक्ष-प्राप्ति के योग्य है और उसीके वचन माननीय होते हैं ।
विवेचन-पूर्ववर्ती सूत्र में कर्मक्षय करने के लिए आवश्यक गुणों का वर्णन करते हुए वीर बनने का कहा गया है। यहाँ वीरता का अर्थ-कोई शारीरिक वीरता समझ कर उसे प्राप्त करने के लिए, शरीर
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