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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३२२ ] [आचाराग-सूत्रम् अत्यल्प है; अल्प भी कितना है यह भी विश्वास नहीं हो सकता । इस चञ्चल जीवन का क्षणभर के लिए भी भरोसा नहीं किया जा सकता । प्राण-वायु इस छिद्रमय शरीर में कैसे रुकी हुई है यही आश्चर्य है। न जाने किस क्षण में यह वायु निकल जाय इसलिए भगवान महावीर ने “समयं गोयम ! मा पमायए" हे गौतम ! समयमात्र का भी प्रमाद न कर यह सुनहरा उपदेश श्री गौतमस्वामी को सुनाया था। प्रत्येक साधक को अपनी साधना का काल अल्प जानकर सदा जागृत-अप्रमत्त रहना चाहिए । प्रत्येक क्रिया को और उसके परिणाम को जाने बिना क्रिया नहीं करनी चाहिए। अपनी विवेक-बुद्धि द्वारा यह सोचे कि इस क्रिया का परिणाम अनिष्ट तो न होगा । उपयोगपूर्वक कार्य करने का नाम ही जागृति है। सतत जागृति रखते हुए साधक को अपनी भूलें प्रतीत हों तो उन्हें देखकर निर्बल, कायर और अधीर न बन जाना चाहिए इसीलिए सूत्रकार ने "अविकंपमाणे" यह पद दिया है। दुष्ट वृत्तियों पर विजय पाना सरल काम नहीं है। एकदम वृत्तियाँ जीर्ण नहीं हो जातीं । इसलिए यह देखकर साधक को हताश और अधीर नहीं बन जाना चाहिए लेकिन धैर्य धारण करते हुए वहाँ तक पहुंचना चाहिए । भूलें एकदम नहीं सुधर सकतीं। उन्हें सुधारने में उतावला न होकर विवेकबुद्धि से काम लेना चाहिए। आवेश के वश नहीं होना चाहिए। इसलिए सूत्रकार ने कहा है कि सदा जागृत रहकर अावेश न करते हुए क्रोध का त्याग करो। ___ क्रोध मूल दोष है। यह विवेकरूपी दीपक के लिए वायु के समान है । विवेकदीप के बिना मनुष्य अन्धा हो जाता है । क्रोध विवेक का शत्रु है अतएव क्रोध में मनुष्य अन्धा हो जाता है। उसे हिताहित और कर्त्तव्याकर्त्तव्य का विवेक-भान नहीं रहता है । क्रोध ऐसी अग्नि के समान है जो दूसरों को भले ही न जलाए लेकिन स्वयं तो जलती ही है । क्रोध कदाचित् दूसरे को नुकसान न पहुँचाए लेकिन अपने हृदय को तो अवश्य संताप पहुँचाता है । क्रोध को प्रधान दोष कहने का अभिप्राय यह है कि क्रोध के कारण विवेकबुद्धि नष्ट हो जाती है और विवेक के चले जाने पर मनुष्य घोर से घोर कुकृत्य कर डालता है। अतएव क्रोध को मूल दोष जानकर इसका परिहार करना चाहिए । कई बार साधक अपने दोषों को दूर करना चाहता है लेकिन दोषों को दूर करने का मार्ग उसे नहीं सूझता है। इसके फलस्वरूप कई बार दोष घटने के बजाय बढ़ जाते हैं। इसका कारण यह है कि दोषों के प्रति उसे ऐसी घृणा होती है कि वह विह्वल हो जाता है और उसे आगे बढ़ने का मार्ग नहीं मिलता है। अतएव वह विह्वल होकर अधिक दोषों का सेवन करने लगता है इसलिए दोषों को दूर करने के लिए अधीर न होकर विवेकबुद्धि से काम लेना चाहिए । जब तक विवेकबुद्धि द्वारा दोषों की उत्पत्ति का कारण और उनका परिणाम न जान लिया जाय वहाँ तक दोष सर्वथा नहीं नष्ट हो सकते । इसीलिए सूत्रकार ने क्रोध का परिणाम जानने के लिए कहा है । क्रोध का परिणाम है शारीरिक और मानसिक संताप । इस संताप के कारण आगामीभव में नरकादि-स्थानों में विविध प्रकार के कष्टों का अनुभव करना पड़ता है यह जानकर उभय परिज्ञा द्वारा क्रोध का सर्वथा त्याग करना चाहिए । संसार के जीव क्रोध के कारण कैसे दुख उठा रहे हैं और भविष्य में उठावेंगे यह जानकर अपनी बुद्धि की कसौटी करो । प्रत्येक पदार्थ को विवेकबुद्धि से देखो । इस तरह जो साधक क्रोध का निरोध करके उपशान्त हुए हैं, पापकर्मों से निवृत्त हुए हैं, जो सब प्रकार के निदान (वासना-इच्छा ) से रहित हैं वे शान्ति के असीम आनन्द का अनुभव करते हैं। तीर्थङ्करों के उपदेशामृत के द्वारा जिनका अन्तःकरण सुवासित है, कषायरूपी अग्नि के शीतल होने से जो शान्त हैं वे शान्ति के सागर में हिलोरे लेते हैं। इसलिए विद्वान् पुरुष कभी क्रोध न करे । कषायों का उपशम करना ही साधना की कसौटी है। चाहे जैसे For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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