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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३२१ चतुर्थ अध्ययन तृतीयोदेशक ] विगिंच कोहं अविकंपमाणे इमं निरुद्धाउयं संपेहाए दुक्खं च जाण अदु भागमेस्सं, पुढो फासाइं च फासे, लोयं च पास विफंदमाणं, जे निव्वुडा पावेहिं कम्मेहिं अणियाणा ते वियाहिया तम्हा अतिविजो नो पडिसंजलिज्जासि त्ति बेमि। संस्कृतच्छाया-परित्यज क्रोधमविकम्पमानः, इदं निरुद्धायुष्क संप्रेक्ष्य दुःखञ्च जानी है अथवा आगामि ( दुःखं ) पृथक् स्पर्शान् च स्पृशेत् लोकञ्च पश्य विस्पन्दमानं ये निवृत्ताः पापेषु कर्मसु अनिदानाः त व्याख्याताः तस्मादतिविद्वान् ( सन् ) न प्रतिसज्वलेः इति ब्रवीमि । शब्दार्थ-इम इस मनुष्य भव को। निरुद्धाउयं अल्प आयुष्य वाला। संपेहाए= जानकर । अविकंपमाणे अधीर न होते हुए। कोह-क्रोध को। विगिंच-दूर करो। दुक्खं= क्रोध से होने वाले दुख को । जाण-जानो । अदु अथवा । आगमिस्स आगामी भव में नरकादि में होने वाले दुख को जानो । पुढो विभिन्न तरह के । फासाई–दुखों को । फासे अनुभव करता है । लोयं च संसार को । विफंदमाणं-दुख का प्रतिकार करने के लिए इधर-उधर दौड़ते हुए। पास देख । जे–जो। पावेहि कम्मेहि पापकर्मों से। निव्वुडा=निवृत्त हुए हैं। ते वे। अणियाणा= वासना-इच्छारहित । वियाहिया=(परम सुखी) कहे गये हैं। तम्हा=इसीलिए। अतिविजो-विद्वान् । नो पडिसंजलिजासि-क्रोध न करे । त्ति बेमि=ऐसा कहता हूँ। भावार्थ-हे साधको ! मनुष्य-भव को अल्पायुष्क जानकर अधीर न होकर क्रोध का त्याग करो। क्रोध के कारण होने वाले मानसिक और शारीरिक दुखों को और आगामी भव में होने वाले नरकादि दुखों को जानो । क्रोध के कारण नरकादि में जीव नाना प्रकार के दुखों का अनुभव करता है। क्रोध के वश बना हुआ यह मनुष्य दुख के प्रतिकार के लिए किस तरह इधर-उधर दौड़ता है यह तुम देखो। जो साधक कषायों पर विजय पाकर उपशान्त बने हैं वे निदानरहित परमसुख के भागी कहे गये हैं। अतएव हे विद्वान् ! तुम कदापि क्रोध न करो ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-इस सूत्र में क्रोध को त्याग ने का उपदेश दिया गया है। पूर्ववर्ती सूत्र में तपश्चर्या का विधान करके अब क्रोध को त्यागने का उपदेश दे रहे हैं इससे यह ध्वनित होता है कि तपश्चर्या तभी साधक होती है जब क्रोध का शमन किया जाय । प्रायः यह देखा जाता है कि जो तपस्वी कहलाते हैं वे अधिक क्रोध करते हैं लेकिन सच्चा तपस्वी क्रोधी नहीं होता यह दिखलाने के लिए तपश्चर्या के बाद ही क्रोध का निषेध किया गया है। सूत्रकार फरमाते हैं कि मनुष्य-भव को अल्पायुष्क जानकर अधीर न होकर क्रोध का त्याग करो। मनुष्य-भव का अल्पकाल कह कर सूत्रकार सदा सर्वदा जागृत रहने का संकेत करते हैं। साधना का काल For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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