SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 354
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चतुर्थ अध्ययन तृतीयोद्देशक ] [ ३२३ निमित्त क्यों न उपस्थित हों साधक को सदा क्रोध से बचना चाहिए। उसे यह समझना चाहिए कि क्रोध के निमित्त मेरी ही वृत्तियों से उत्पन्न हुए हैं। अतएव अपनी वृत्तियों को ही शान्त करना चाहिए। साधक यह समझे कि मुझ में शान्ति का अखण्ड स्रोत बह रहा है। अपने आप में अद्भूत शान्ति का अनुभव करने से कषायों पर विजय प्राप्त हो सकती है । कषाय-विजय ही संयम की साधना की कसौटी है। -उपसंहार मिथ्यावादियों के प्रति उपेक्षाबुद्धि रखकर अात्माभिमुखता का विकास करना चाहिए । जीवन के समस्त तत्त्वों को जो संस्कारी बनावे उसी का नाम सच्ची विद्या है। वाणी और व्यवहार की एकरूपता का नाम ही विद्वत्ता है। श्रात्माभिमुख दृष्टि के विकास के लिए देहदमन, इन्द्रियदमन और वृत्तिदमन तीनों की आवश्यकता होती है। कषायों का शमन ही शान्ति का मूल है । जगत् के सभी महापुरुषों ने यहीं अङ्गीकार किया है । इसी मार्ग पर चलने में ही कल्याण है। इस प्रकार श्रीमत्सुधर्मास्वामी ने अपने ज्येष्ठ अन्तेवासी श्री जम्बूस्वामी को कहा कि मैंने भगवान् के मुखारविन्द से झरते हुए अमृत के बिन्दुओं का पान किया है सो ही तुझे कहता हूँ । यह भगवद्-वचन हैं, मेरे नहीं । तत्त्वदर्शी पुरुषों के वचनों पर श्रद्धा करो। ऐसा करने से जीवन प्रफुल्ल होता है । इति तृतीयोद्देशकः АЛЛАЛЛ For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy