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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३२०.] .: [प्राचाराग-सूत्रम क्रियाएँ भगवान की प्राज्ञा में नहीं कही गई हैं । यह समझ कर पूर्वसंचित कर्मों की निर्जरा के लिए तय करना चाहिए । तप के लिए गीता में कहा गया है: विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः । रसवर्ज रसोप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्त्तते ॥ अर्थात्-तपस्वी निराहारी के विषय शान्त हो जाते हैं, जो रस (आसक्ति) रह जाता है वह भी सम्यग्ज्ञान के द्वारा नष्ट हो जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि विषयों से निवृत्त होने के लिए तप की आवश्यकता है। यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि निराहारी रहने वालों में श्रासक्ति रह जाती है अतएव वह तप उपयोगी कैसे हो सकता है ? उसका समाधान यह है कि जो तप ज्ञानपूर्वक किया जाता है उसमें पदार्थ के प्रति आसक्ति नहीं रह पाती है। निराहारी रहने से विषय शान्त होते हैं और इसी भाशय से निराहारी रहने पर आसक्ति भी चली जाती है । तात्पर्य यह है कि इन्द्रियाँ विषयों की ओर न दौडे और आत्म-जागृति बनी रहे इसके लिए तप की आँच में तपना चाहिए । शरीर-दमन का उपदेश देने के बाद सूत्रकार फरमाते हैं कि आत्म-दमन करो और अपनी वृत्तियों को जीर्ण करो। आत्मदमन का अर्थ है-कषायादि कुवासनाओं से वासित अन्तःकरण की प्रवृत्ति का निरोध करना । आत्मा कषायों से युक्त होकर कुसंस्कारों की ओर गमन करता है उसका निरोध करना आत्मदमन है। यह कार्य सरल नहीं है । जो संयमी अत्यन्त अप्रमत्तभाव से अपनी चित्तवृत्ति की चौकसी करते हैं, जो सत् और असत् प्रवृत्ति के विवेक से विभूषित हैं वे अात्मदमन करके वर्तमान जीवन को भी सुखी बनाते हैं और भावी जीवन भी सुखमय बनाते हैं। जो साधक अपनी वृत्तियों को काबू में करते हैं वे तपस्वी पद के सच्चे अधिकारी हैं । तपश्चर्या का माप-दण्ड वृत्ति-विजय है । जिसने अपनी वासनाओं-इच्छाओं को जितने अंश में कम की हैं वह उतने ही अंश में तप का आराधक है इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि "इच्छानिरोधस्तपः' अर्थात्-इच्छाओं का रोकना ही तप है। अब सूत्रकार एक दृष्टान्त द्वारा तप की अाचरणीयता प्रदर्शित करते हैं । जिस प्रकार जीर्ण बने हुए काष्टों को अग्नि शीघ्र ही भस्मसात् कर देती है उसी तरह जिसने तप के द्वारा अपने आपको जीर्ण कर लिया है वह शीघ्र ही सभी कर्मों को भस्मसात् कर डालता है। नियुक्तिकार ने इस विषय में यह गाथा लिखी है: जह खलु झुसिर कट्ठ सुचिरं सुकं लहुं डहाइ अग्गी । तह खल खवंति कम्म सम्मचरणे ठिया साहू ॥ अर्थात्-जिस प्रकार पोले-जीर्ण और अत्यन्त सूखे हुए काष्ठ को अग्नि शीघ्र ही जला देती है इसी प्रकार सम्यक् चारित्र में स्थित साधु कर्मरूपी काष्ठ को भस्म कर देते हैं। जिस तरह गीली की अपेक्षा सूखी लकड़ी और सूखी लकड़ी की अपेक्षा जीर्ण लकड़ी जल्दी जल जाती है इसी तरह पश्चात्ताप और संयम के द्वारा गीले पापकर्मों को तपा देना चाहिए तत्पश्चात् त्याग द्वारा श्रासक्ति के धीज को जीर्ण करना चाहिए और तदनन्तर आसक्ति का सर्वनाश करने के लिए अनासक्ति रूपी आग का आश्रय लेना चाहिए । अनासक्ति के द्वारा कर्म शीघ्र नष्ट होते हैं। यह अनासक्ति त्यागमार्ग के द्वारा ही आ सकती है अतएव संयम में अप्रमत्तता, अनासक्ति और आत्मनिष्ठा रखते हुए आगे बढ़ना चाहिए। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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