SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 341
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३१०] [प्राचाराग-सूत्रम् अर्थात्-देवताओं को बलि देने के बहाने अथवा यज्ञ के बहाने जो निर्दय व्यक्ति प्राणियों की हिंसा करते हैं वे घोर नरक में जाते हैं। जो पशुओं का यज्ञ में बलिदान करते हैं वे अन्धकार में ( नरक) डूबते हैं । हिंसा से न कभी धर्म हुआ है, न होगा । जो हिंसा करके धर्म चाहते हैं वे मानो सर्प के मुँह से अमृत झरने की चाह करते हैं । अतः विवेकियों को धर्म के नाम पर भी हिंसा न करनी चाहिए। किसी भी प्रकार की हिंसा क्षन्तव्य नहीं है । जो इस प्रकार की हिंसा करते हैं या हिंसा का पतिपादन करते हैं वे अनार्य हैं। ___ इसी तरह कई वादी पृथ्वी आदि पाँच स्थावरों में और कृमि-कीटादि में जीव ही नहीं मानते हैं और उनकी हिंसा में प्रवृत्त होते हैं लेकिन प्रथम अध्ययन में युक्तिपूर्वक इनमें जीवत्व प्रतिपादित कर दिया गया है । बौद्धमतावलम्बी इस प्रकार मानते हैं __प्राणि-प्राणिज्ञानं घातकचित्तं च तद्गता चेष्टा । प्राणैश्च विप्रयागः पञ्चभिरापद्यते हिंसा ॥ अर्थात्-जीव हो, जीव का ज्ञान हो जाय, उसे मारने का मन में संकल्प हो, उसके अनुसार चेष्टा की हो और प्राणी का प्राण चला जाय तो हिंसा होती है। अर्थात्-जब तक यह प्राणी है ऐसा ज्ञान न हो, ज्ञान हो जाने पर उसे मारने की भावना न हो और भावना हो जाने पर भी तद्रूप चेष्टा न की हो और चेष्टा करने पर भी जीव न मरा हो तो वह हिंसा नहीं है। उक्त कारणों में से एक भी कारण न हो तो वह हिंसा नहीं है । मारने का संकल्प कर लिया लेकिन तद्रूप चेष्टा न की तो कोई दोष नहीं है। जिस प्रकार मन में लड्डू खा लिए तो उनसे तृप्ति नहीं होती उसी तरह मनके संकल्प से कोई काम नहीं हो सकता अतः केवल संकल्प से हिंसा नहीं हो सकती । हिंसा हो गई हो लेकिन हिंसा करने का संकल्प न हो तो उससे पाप नहीं लगता। तात्पर्य यह है कि वे उक्त सभी कारणों के होने पर ही हिंसा मानते हैं लेकिन इनका यह कथन युक्तिसंगत नहीं है। अहिंसा की व्याख्या तो यह है कि मन, वचन और काया से सूक्ष्म जीवों को भी शारीरिक या मानसिक पीड़ा न पहुँचाना। जैनधर्म के अनुसार तो मन से किसी को पीड़ा पहुँचाने का संकल्प करने मात्र से मानसिक हिंसा का दोषी गिना जाता है । वस्तुतः जैनदर्शन ही अहिंसा का सूक्ष्म निरूपण करता है । यही निरूपण आर्य पुरुषों के योग्य है । जो आर्य हैंसर्व पापकर्मों से निवृत्त होने से सुसंस्कारी हैं वे अहिंसामय धर्म का प्रतिपादन करते हैं और उसका व्यवहार में उपयोग करते हैं । जो प्राणि-हिंसा का विधान करते हैं वे अनार्यों के तुल्य हैं। इतना ही नहीं वरन् अनार्यों से भी पतित हैं। अनार्य और म्लेच्छ तो बेचारे धर्म और अधर्म के विवेक से रहित होते हैं अतएव भूल करते हैं लेकिन जो धर्म को समझते हैं वे प्राणी जब धर्म के नाम पर अधर्म का सेवन करते हैं और दूसरों को अधर्म का उपदेश देते हैं तो वे प्राणी स्वयं डूबते हैं और दूसरों को डुबाते हैं। ऐसे लोग जाति से अनार्यों की अपेक्षा विशेष अनार्य हैं क्योंकि ये आर्य कहलाते हुए भी अनार्यों जैसे कार्य करते हैं । हिंसा अनार्यों में ही स्थान पा सकती है। जो जितने अंश में आर्य हैं-सुस्कारी हैं वे उतने ही अहिंसक हैं। आर्यों का प्रतिपादन भी यही है कि संसार के सभी प्राण, जीव, भूत और सत्वों को न मारना चाहिए, न दबाना चाहिए, न पीड़ा पहुंचानी चाहिए और न प्राणों से रहित करना चाहिए । इन प्रत्येक कार्य में हिंसा रही हुई है। जिन प्राणियों ने अपना विकास किया है उन्होंने अहिंसा को अप जीवन में प्रथम स्थान दिया है । अन्य के हितों को कुचलना, अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए अन्य को पीड़ा देना और फिर अपने विकास की इच्छा करना, एक ही साथ हँसने और गाल फुलाने के समान असम्भव है। हृदय में समस्त प्राणियों के प्रति अनन्त प्रेम भरा हो तभी सचा विकास होता है । यही आर्यत्व है। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy