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'चतुर्थ अध्ययन द्वितीयोद्देशक ]
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वादी प्रश्न करते हैं कि आपने अपने वचनों को आर्य-वचन कहा और हमारे वचनों को अनार्यवचन कहा लेकिन आपके कहने मात्र से से नहीं माना जा सकता। इसके लिए आपके पास क्या प्रमाण हैं ? इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि हे वादियो ! प्रत्येक के मत का सूक्ष्म अवलोकन करने के पश्चात् मैं यह कहता हूँ कि हिंसामय वचन अनार्य वचन है और अहिंसामय धर्म का प्रतिपादन आर्य वचन है । हे वादियो ! यह तो बतलाइए कि आपको सुख प्रिय है या दुख ? दुख अप्रिय है या सुख अप्रिय है ? यदि आप यह कहते हैं कि हमें दुख प्रिय है और सुख अप्रिय है तो यह बात प्रत्यक्ष-बाधित है, आप कोई दुख को पसन्द नहीं करते हैं। अगर आप यह कहते हैं कि हमें सुख प्रिय है और दुख प्र है तो है वादियो ! आपकी ही तरह संसार के सभी प्राण, भूत, जीव और सत्ब दुख से घृणा करते हैं। और सुख को चाहते हैं तो उन्हें क्यों सताया जाय ? अपने ही समान संसार के अन्य प्राणियों को समझो और प्रत्येक के सुख के लिए प्रयत्न करो । किसी को दुख न दो । यही धर्म है। जो आप चाहते हैं सारी दुनिया वही चाहती है । अपना और पर का सादृश्य और एकरूपता सिद्ध करने के लिए ही धर्म होता है । हिंसामय ही धर्म हो सकता है। हिंसामय धर्म कदापि नहीं हो सकता ।
प्रवादि-परीक्षा के सम्बन्ध में नियुक्तिकार ने एक दृष्टान्त कहा है वह इस प्रकार है: -चम्पानगरी में सिंहसेन नाम का राजा था। उसके रोहगुप्त नाम का मंत्री था । वह मंत्री शुद्ध अर्हन्त-प्रवचन का अनु रागी था । एकबार राजा के दरबार में धर्मसम्बन्धी चर्चा छिड़ पड़ी। जो जिस मत का अनुयायी था उसने अपने २ धर्म को अच्छा कहा लेकिन मंत्री चुपचाप रहा। राजा ने मंत्री से पूछा कि तुम क्यों कुछ नहीं कहते ? मंत्री ने निवेदन किया कि मुख से कहने से क्या लाभ ? यों तो सभी अपने धर्म के पक्षपात से अपने २ धर्म को श्रेष्ठ कहेंगे ही। हम विचारें और परीक्षा करें कि कौनसा धर्म सत्य है । मंत्री ने राजा की आज्ञा से 'संकुण्डलं वा वदनं न वेति' यह समस्या पूर्ति करने के लिए सभी वादियों को दी और नगरी में घोषणा करवा दी कि जो इस समस्या की पूर्ति करेगा उसे राजा बहुत द्रव्य प्रदान करेगा तथा उसका नुयायी हो जायगा। सभी वादियों ने यह चतुर्थ पद ग्रहण किया और सातवें दिन राजसभा में उपस्थित हुए। राजसभा में सबसे पहिले परिव्राजक बोला:
भिक्खं पविद्वेण मएऽज्ज दिट्ठ पमयामुहं कमलविसालनेत्तं । विक्खित्तचित्तेण न सुड्डु नायं सकुंडलं वा वयणं न वत्ति ॥
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अर्थात् - मैं भिक्षा के लिए प्रविष्ट हुआ तो मैंने कमल के समान विशाल नेत्र वाला, युवती स्त्री का मुख देखा । उस मुख को देखने से मेरा चित्त व्याकुल हो गया इसलिये मुझे मालूम नहीं कि उसके कान में कुण्डल थे कि नहीं।
इस समस्या पूर्ति में चित्त की व्यग्रता को नहीं जानने का कारण कहा है। इस में वीतरागता नहीं है। कहा जाकर राजा द्वारा वह तिरस्कृत हुआ । इसी प्रकार तापस, बौद्ध आदि वादियों ने चित्त की व्यग्रता को नहीं जानने का कारण बताया। तत्पश्चात् मंत्री ने यों सोचकर कि कहीं राजा सभी को एक समान न समझ ले इसलिए एक सच्चे मुनि से राजसभा में पधार कर राजा को धर्मोपदेश देने की प्रार्थना की थी। सो वे मुनि सभा में पधारे और बोले
खतस्स दंतस्स
किं
जिइंदियस्स अज्झप्पजोगे गयमाणसस्स । विचितिएण ? सकुंडलं वा वयं न वत्ति ॥
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