SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 340
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चतुर्थ अध्ययन द्वितीयोद्देशक ] [३०६ यह मीमांसकों का कथन केवल शब्द-जाल है इसमें तथ्यांश नहीं है क्योंकि दृष्टान्त विषम दिया गया है । जो लोह-पिण्ड के पत्रों का तैरना कहा गया है वहाँ तो लोहे के पिण्ड का रूपान्तर स्पष्ट दिखाई दे रहा है । पहिले वह पिण्डरूप था अब वह पत्रों के रूप में है लेकिन यज्ञ में मारे जाने वाले जीवों में वेद मन्त्रों द्वारा कुछ भी परिवर्तन या अवस्थान्तर होता हुआ नहीं दिखाई देता है। प्राणी दुख के मारे चीत्कार करते हैं लेकिन वेदमन्त्रों द्वारा उनके चीत्कारों में या उनकी वेदना में कमी नहीं होती वरन् वे श्रार्तस्वर में करुणक्रन्दन करते हैं । वेदमन्त्रों द्वारा उनकी वेदना में अल्पमात्र भी कमी नहीं होती तो वे वेदमन्त्र क्या संस्कार करते हैं जिससे वह हिंसा, हिंसा न मानी जाय । यदि यह कहा जाय कि मरने वाले प्राणी को वेदमन्त्रों के उच्चारण के प्रभाव से स्वर्ग मिलता है तो इस कथन की सचाई का प्रमाण क्या है ? क्या कभी कोई जीव स्वर्ग से आकर कहता है कि मैं वेदोक्त मन्त्रों के उच्चारणपूर्वक मारे जाने से स्वर्ग में उत्पन्न हुआ हूँ ? ऐसा कभी नहीं होता। अगर इस प्रकार मरने से स्वर्ग मिल जाता हो तो इस प्रकार को श्रद्धा रखने वालों को चाहिए कि वे अपने माता-पिता आदि स्वजनों को इस प्रकार स्वर्ग में भेजकर उन पर उपकार क्यों नहीं करते ? स्वर्गप्राप्ति का इससे बढ़कर और कौन सरल उपाय हो सकता है ? क्यों न प्रियजनों को बलि पर चढ़ाकर उन्हें स्वर्ग में पहुंचाने का पुण्य लूटते हैं ? उनकी यह करुणा बेचारे दीनहीन मूक पशुओं पर ही क्यों बरसती है ? दूसरी बात यह है कि इस तरह यदि स्वर्ग मिल जाया करे तो जन्मभर के उपार्जित अशुभ कर्मों का नरकादि फल न मिलेगा जिससे कृतकर्म का नाश और अकृतकर्म का भोग मानना पड़ेगा जो कि किसी को भी इष्ट नहीं है अतएव वैदिकी हिंसा भी अन्य हिंसाओं के समान ही पापानुबन्धिनी है अतएव त्याज्य है। पहिले यह कहा गया है कि इस प्रकार की हिंसाओं से देवता और अतिथियों की प्रीति होती है यह कथन युक्तिरहित है । उन्हें सोचना चाहिए कि देवता क्या कभी मांसभक्षण करते हैं ? क्या देव ऐसे कुत्सित अशुचि के भूखे हैं ? देवता तो संकल्पमात्र से संतुष्ट होते हैं। उन्हें इस प्रकार पशुमांस ग्रहण करने की इच्छा तक नहीं हो सकती है। अतिथियों को अन्नादि द्वारा तृप्त किया जा सकता है । तथा जो वृष्टि श्रादि होने का कहा है वह एकान्ततः सत्य नहीं है । यज्ञादि के बिना भी वृष्टि होती है और यज्ञ करने पर भी कदाचित् वृष्टि नहीं होती है । मन्त्रों का प्रभाव अचिन्त्य है अतएव जो यज्ञ में मारे जाते हैं उन्हें स्वर्ग मिलता है यह कथन मात्र अन्ध विश्वास का फल है। लौकिक व्यवहार में देखा जाता है कि वेदमन्त्रों के उच्चारण पूर्वक विवाहादि संस्कार होते हैं तदपि कहीं वैधव्य आ पड़ता है और कहीं बिना मन्त्रों के विवाहादि होने पर भी सौभाग्य बना रहता है । अतः “मन्त्रों का प्रभाव ही ऐसा है" यह कथन तो अन्ध विश्वास मात्र कहा जा सकता है। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि हिंसा चाहे वह किसी प्रकार की भी क्यों न हो पापानुबन्धी ही है । वेदान्तियों का भी यही कथन है देवोपहारव्याजेन यज्ञव्याजेन येऽथवा । घ्नन्ति जन्तून् गतवृणा घोरां ते यान्ति दुतिम् ॥ अन्धे तमसि मज्जामः पशुभिर्ये यजामहे । हिंसा नाम भवेद् धर्मो न भूतो न भविष्यति ॥ For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy