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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चतुर्थ अध्ययन द्वितीयेोद्देशक ] [ २६६ नम्रभाव, अल्प आरम्भ करना, अल्प परिग्रह रखना, ईर्षाभाव न रखना, सब पर दयाभाव रखना मनुष्यायु कारण हैं। सराग संयम, श्रावक धर्म का पालन, अज्ञान तप, अकाम निर्जरा ये देवायु के कारण हैं । नामकर्म के दो भेद हैं। शुभ नाम और अशुभ नाम । मन की सरलता, वचन की सरलता और काया की सरलता और वैरविरोध न रखने से शुभ नाम का बँध होता है। मन की वक्रता, वचन की वक्रता, काया की वक्रता और विसंवादत्व ( वैरविरोध ) अशुभ नाम कर्म के बंध के कारण है। जाति, कुल, बल, रूप, तप, श्रुत, लाभ और ऐश्वर्य का घमंड करने से और अपनी तारीफ और दूसरों की निन्दा करने से नीचगोत्र बँधता है । आठ मद स्थानों का अभिमान न करने से, दूसरों का गुणानुवाद और . आत्मनिन्दा करने से उच्चगोत्र का बंध होता है । अन्तराय कर्म के बंध के कारण ये हैं: - ( १ ) दान देते हुए के बीच में बाधा डालना ( २ ) किसी को लाभ हो रहा हो उसमें बाधा डालना (३) भोजन - पान आदि भोग की प्राप्ति में बाधा डालना ( ४ ) वस्त्र शयनादि उपभोग योग्य वस्तु की प्राप्ति में रुकावट करना ( ५ ) कोई जीव अपने पुरुषार्थ को प्रकट कर रहा हो उसके प्रयत्न में बाधा डालना । यह श्रास्रवों के कारण का निरूपण किया गया है। इसी तरह अनशन, ऊनोदरी, वृत्ति-संक्षेप, रसपरित्याग, काय-क्लेश और प्रतिसंलीनता रूप बाह्य तप, तथा विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग और व्युत्सर्ग रूप आभ्यन्तर तप निर्जरा का कारण है । इस प्रकार परम हितकारी तीर्थङ्कर देवों ने आस्रव और संवर का भलीभांति पृथक् पृथक् स्वरूप बताया है। इसे जानकर आस्रव से निवृत्ति और निर्जरा में प्रवृत्ति करनी चाहिए । या घाइ नाणी इह माणवाणं संसार पडिवण्णाणं संबुज्झमाणाणं विन्नाणपत्ता, श्रट्टा वि संता अदुवा पत्ता श्रहासचमिणं त्ति बेमि । नाणागमो ममुहस्त अत्थि, इच्छापणीया वंकानिकेया, कालग्गहिया निचयनिविट्ठा पुढो पुढो जाई पकप्पयंति । संस्कृतच्छाया - आख्याति ज्ञानी इह मानवानां संसारप्रतिपन्नानां सुबुध्यमानानां विज्ञानप्राप्तानाम्, आत्ती अपि सन्तः अथवा प्रमत्ताः यथासत्यमेतदिति ब्रवीमि । नानागमो मृत्युमुखस्यास्ति, इच्छाप्रणीताः, बङ्का निकेताः, कालगृहीताः निचयनिविष्टाः पृथक् पृथक् जातिं प्रकल्पयन्ति । 1 शब्दार्थ - नाणी ज्ञानीजन। संसारपडिवण्णाणं संसारवर्त्ती । संबुज्झमाणाणं भलीभांति समझने वाले । विन्नाणपत्ताणं हिताहित को समझ सकने वाले | माणवाणं = मनुष्यों को । इह = इस प्रवचन में | आघाइ— इस तरह उपदेश देते हैं कि । श्रट्टा वि संता = दुखी बने हुए । अदुवा=अथवा | पमत्ता=प्रमादी बने हुए भी धर्माचरण के लिए उद्यत होते हैं । अहासच्चमि = यह बिल्कुल सत्य है । त्ति बेमि= ऐसा मैं कहता हूँ । मच्चुमुहस्स = मृत्यु के मुख में पड़े हुए प्राणी For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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